Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
परमाणु की तरह सिद्ध ( शुद्धजीव ) का श्राकार नियत नहीं
शंका- सिद्धों का शुद्धआकार शुद्धनिश्चयनय से कैसा है ? जैसा कि पुद्गल का षट्कोण आकार
बतलाया है ।
समाधान- - शुद्ध निश्चय का विषय 'विशेष' या 'भेद' नहीं है । 'सिद्धों का आकार' यह भेद विवक्षा को लिए हुए है । इसलिए यह निश्चयनय का विषय नहीं है । कहा भी है
"निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारो भेदविषयः । " ( आलापपद्धति )
अर्थ - निश्चयनय का विषय अभेद है श्रोर व्यवहारनय का विषय भेद है ।
श्रतः सिद्धों के आकार का कथन व्यवहारनय का विषय है । प्रत्येक सिद्ध भगवान का आकार अपने-अपने चरमशरीर से कुछ न्यून होता है । कहा भी है
freeम्मा अट्ठगुणा किंचुणा चरमदेहवो सिद्धा ।
लोयग्गठिया विचा उत्पाद वह संजुता ॥ १४ ॥ ( वृ. द्र. सं.)
अर्थ - सिद्धभगवान ज्ञानावरणादि आठकमों से रहित हैं, सम्यक्त्वादि आठगुणों के धारक हैं प्रौर अन्तिम शरीर से कुछ कम आकारवाले हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं तथा उत्पाद व्यय से संयुक्त हैं ।
जिसप्रकार शुद्ध पुद्गलपरमाणु का प्राकार नियत है उसप्रकार शुद्ध जीव का आकार नियत नहीं है ।
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अरसमरूवमगंधं अश्वत्तं चेयणागुणमसछ ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठ- संद्वाणं ||५|| [ लघु द्रव्यसंग्रह ]
अर्थ - जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त ( अस्पर्श ), अशब्द, अलिंगग्रहण है तथा अनिर्दिष्ट संस्थान वाला है अर्थात् जीव का कोई संस्थान ( आकार ) निर्दिष्ट ( नियत ) नहीं है। चेतना गुणवाला है । जीव को ऐसा जानो ।
— जै. ग. 1-11-65/VII / ओमप्रकान
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१. श्रात्मा का श्राकार व्यवहार से है
२. प्रमूर्तिक द्रव्यों का भी प्रदेशत्व गुण के कारण आकार होता है।
शंका- यह जीव जिस गति में जाता है उस गति के अनुकूल पुद्गल वर्गणाओं के द्वारा शरीर की रचना होती है और उस शरीर के अनुकूल आत्म-प्रदेशों का प्रसार होकर जो आत्मा का आकार बना वह निश्चय से है या व्यवहार से ?
समाधान - आत्मप्रदेशों का संकोच होना व विस्तार होना आत्म-द्रव्य का स्वभाव नहीं है किन्तु शरीर नामकर्म के आधीन है अर्थात् शरीरनामकर्मोदय के आधीन होकर आत्मा के प्रदेश संकोच व विस्तार अवस्था को धारण करते हैं । ऐसा नहीं है कि आत्मद्रव्यस्वभाव के कारण आत्मप्रदेशों का संकोच विस्तार होता है । यदि ऐसा न माना जावे अर्थात् द्रव्यस्वभाव के कारण संकोच विस्तार मान लिया जावे तो सिद्धों के भी संकोच - विस्तार का प्रसंग आ जाने से आगम से विरोध आ जायगा । श्रतः जीवप्रदेशों की संकोच विस्ताररूप क्रिया पुद्गलकृत है । इस सम्बन्ध में श्रार्षवाक्य इसप्रकार है
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