Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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ज्ञान-चारित्र के द्वारा दग्ध हो जाने से कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुकने से संसाररूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है।
श्री स्वामिकार्तिकेय ने भी कहा है
मोह-अण्णाण-मयं दिय परिणाम कुणवि जीवस्स ॥२०९॥
संस्कृत टीका-जीवस्य मोहं ममत्वलक्षणं परिणाम परिणति पुद्गलः करोति । च पुनः अज्ञानमयं अज्ञान. निर्वृत्तं मूढं बहिरात्मानं करोति । अर्थ-पुद्गल-जीव के मोह अर्थात् ममस्वरूप परिणाम तथा प्रज्ञानमयो मूढ़भावों को करता है ।
का वि अउवा दीसवि पुग्गलदध्वस्स एरिसी सत्तो।
केवल-णाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ अर्थ-पुद्गलद्रव्य की कोई ऐसी अपूर्वशक्ति है जिससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव भी नष्ट हो जाता है ।
कम्मई विढघणचिक्कणइगरुवइ बज्ज समाइ । णाण-वियक्खण जीवडउ उप्पहि पाहि ताइ ।।७।।
अर्थ-वे ज्ञानावरणादिकर्म इस ज्ञान-विचक्षण जीव को खोटे मार्ग में पटकते हैं वे कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, जिनका विनाश करना कठिन है, गुरु हैं तथा वज्र के समान अभेद्य हैं।
कम्माई वलियाई बलिओ कम्माद जस्थि कोइ जगे।
सम्वबलाइ कम्मं अलेवि हस्थवि गलिणिवणं ॥१६२१॥ ( मूलाराधना ) अर्थ-जगत में कर्म ही अतिशय बलवान है, उससे दूसरा कोई भी बलवान नहीं है। जैसे हाथी कमल वन का नाश करता है वैसे ही यह बलवान कर्म भी जीव के सम्यक्त्त्व-ज्ञान-चारित्रगुणों का नाश करता है।
जीव परिणामहेबुकम्मत्तं पुद्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्त तहेव जीवो वि परिणमइ ॥५०॥ ( समयसार ) अर्थ-जीवपरिणामों को निमित्त पाकर यह पुद्गल कर्मरूप परिणमता है। उसीप्रकार पौद्गलीककर्मोदय का निमित्त पाकर जीव विभावरूप परिणमता है।
"तहि जीव निमित्तकर्तारमंतरेणापि स्वयमेव कर्मरूपेण परिणमतु । तथा च सति कि दूषणं ? घटपटस्तभावि पुद्गलानां ज्ञानावरणाविकर्मपरिणतिः स्यात् । स च प्रत्यक्ष विरोधात ।" ( समयसार पृ० १८२)
अर्थात-यदि जीव परिणामों के निमित्त बिना भी पुद्गल कर्मरूप परिणमने लगे तो घटपट स्तंभ आदि पुद्गल भी ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणम जायेंगे। ऐसा होने से प्रत्यक्ष से विरोध आ जायगा। यह दोष आयगा।
"तहि उदयागतद्रव्यकोधनिमित्तमंतरेणापि भावक्रोधादिभिः परिणमतु । तथा च सति मुक्तात्मनामपि द्रव्यक्रोधाविकर्मोदयनिमित्ताभावेपि भावक्रोधावयः प्राप्नुवंति । न च तविष्टमागम विरोधात ।" ( समयसार पृ० १८४ )
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