Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
१. विग्रहगति में सुख-दुःख, राग तथा श्रात्रव - बन्ध २. सुख-दुःख का संवेदन आत्मा को प्रत्यक्ष होता है ।
शंका- विग्रहगति में मन और इन्द्रियाँ हैं नहीं, फिर जीव राग बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक कर ही नहीं सकता, किन्तु विग्रहगति में कहा है। तो क्या विग्रहगति में राग होता है या बिना राग के केवल कर्मोदय से ही बंध हो जाता है ?
समाधान - विग्रह का अर्थ 'देह' भी है और व्याघात या कुटिलता भी है। दूसरे शरीर के लिये संसारी जीव के जो मोड़ेवाली गति होती है, वह विग्रहगति है । विग्रहगति में इन्द्रियप्रारण होता है, क्योंकि वहाँ पर ज्ञान का क्षयोपशम पाया जाता है। दूसरे बाह्यपदार्थों को ग्रहण करने के लिये इन्द्रियों के व्यापार की आवश्यकता है, किन्तु स्वयं के सुख-दुःख का अनुभव तो स्वयं ज्ञान के द्वारा हो जाता है, उसमें इन्द्रियज्ञान की आवश्यकता नहीं होती । कहा भी है- 'यदि एकान्त से ये मति, श्रुत दोनों परोक्ष ही हों तो सुख-दुःख आदि का जो स्वसंवेदनस्वानुभव है वह भी परोक्ष ही होगा । किन्तु वह स्वसंवेदन परोक्ष नहीं है ।' ( वृहद द्रव्यसंग्रह गाया ५ की संस्कृत टीका ) ।
सुख-दुःख का अनुभव होने पर राग-द्वेष अवश्य उत्पन्न होते हैं । राग-द्वेष के उत्पन्न होने पर कर्मों का बंध भी अवश्य होता है, यदि यह कहा जाय कि आस्रव के बिना कर्मबन्ध कैसे होगा ? इसका उत्तर यह है कि विग्रहगति में कार्मणकाययोग होता है जिसके कारण कर्मास्रव होता है। कहा भी है- 'विग्रहगतो कर्मयोगः ।'
( तस्वार्थसूत्र अध्याय २ सूत्र २५ ) । इसी प्रकार तत्वार्थसार श्लोक ९७ में भी कहा है ।
- जै. ग. 14-11-63 / VIII / पं. सरनाराम
श्रात्मप्रदेशों के भ्रमरण को सिद्धि
शंका- आत्मा के प्रदेश भ्रमण करते हैं, इसमें आगम प्रमाण क्या है ?
समाधान - प्रभेदनय की अपेक्षा आत्मा एक अखंड पदार्थ है । अखंडपदार्थ में प्रदेशों का भ्रमण संभव नहीं है, किन्तु भेद दृष्टि में आत्मा असंख्यात प्रदेशी है और प्रत्येक प्रदेश की सत्ता भिन्न-भिन्न है । अनादिकाल से यह आत्मा कर्मों से बंधा हुआ होने के कारण अपने स्वभाव से च्युत हो रहा है । जैसा जैसा कर्मोदय होता है वैसावैसा आत्मा का परिणमन होता है। शरीरनामकर्म के उदय से आत्मा के प्रदेश संकोच व विस्ताररूप होते रहते हैं । संकोच व विस्तार के कारण आत्मप्रदेशों का भ्रमण होता रहता है ।
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यदि जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे, तो प्रत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथ्वी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये प्रात्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रिय प्रमाण आत्मप्रदेशों का भी भ्रमरण होता है । जीव के आठ मध्यप्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अत: वे स्थित रहते हैं । अयोगकेवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीवप्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता है अतएव वहाँ पर भी ( सर्व ) आत्मप्रदेश अवस्थित रहते हैं । विशेष के लिए धवल पुस्तक १ पृ० २३२-२३४; धवल पु० १२ पृ० २६४-२६८ देखना चाहिये ।
श्री राजवार्तिक अध्याय ५ सूत्र ८ वार्तिक १६ में आचार्य श्री अकलंकदेव ने इसप्रकार कहा है- " आगम में जीव के प्रदेशों को स्थित भौर अस्थित दोरूप में बताया है । दुःख का अनुभव पर्याय परिवर्तन या क्रोधादि दशा
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