Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ ६६६
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
समाधान — कर्मोदय के और जीव-विकारी परिणामों के कारणकार्य भाव सुघटित हैं । यदि कर्मोदय कारण के बिना जीव के विकारी परिणाम होने लगे तो शुद्ध जीवों के भी विकारी परिणाम होने का प्रसंग प्राप्त हो जायगा ।
एकस्स व परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहि ।
दु ता कम्मोद
हि विणा जीवस्स परिणामो ॥ १४६ ॥ ( समयसार )
संस्कृत टीका - जीवस्यैकतिनोपादानकारणस्य रागादि-परिणामो जायते स च प्रत्यक्षविरोध आगम
विरोधश्च ।
यदि अकेले जीव के ही रागादि परिणाम मान लिये जावें तो कर्मोदय के बिना भी रागादि विकारी परिणाम हो जाने चाहिये । इससे यह दूषरण आता है कि कर्महेतु बिना शुद्ध जीवों ( सिद्धों) में रागादि विकारपरिणाम पाया जाना चाहिए । शुद्धजीवों में रागादि विकारीपरिणाम पाया जाना, प्रत्यक्ष व श्रागम इन दोनों से विरुद्ध है ।
सम्मत पडिणिबद्ध मिच्छत्त जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोवयेण जीवो मिच्छादिट्ठिीति णाय वो ॥१६९ ॥
णाणस्स पडिणिबद्ध अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णायवो ॥ १७० ॥
चारित पडिणिबद्ध कसाय जिणवरेहि परिकहिये ।
तस्सोवयेण जीवो अचरितो होदि णावो ||१७|| ( समयसार तात्पर्य वृत्ति)
अर्थ - श्रात्मा के सम्यक्त्वगुण को रोकनेवाला मिध्यात्वकर्म है, जिसके उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो
जिसके उदय से यह जीव अज्ञानी हो जिसके उदय से यह जीव प्रचारित्री
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रहा है । आत्मा के ज्ञानगुण का प्रतिबन्धक अज्ञान अर्थात् ज्ञानावरणकर्म है। रहा है । चारित्रगुण का प्रतिबन्धक कषायकर्म अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म है। ( चारित्ररहित ) हो रहा है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने बतलाया है ।
"केवल किलारमा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्थ शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्यते इति तावद्वस्तुस्वभावः ।" ( समयसार गाया २७९ आत्मख्याति टीका )
परिणमन स्वभाव होने पर भी अपने शुद्धस्वभावपने कर रागादि निमित्तपने के प्रभाव से आप ही रागादिभावरूप नहीं परिणमता, अपने श्राप ही रागादि परिणाम का निमित्त नहीं है, परन्तु परद्रव्य स्वयं रागादिभाव को प्राप्त होकर आत्मा के रागादि विकारीपरिणामों का निमित्त है । ऐसा वस्तुस्वभाव है ।
"आत्मा अनात्मनां रागादीनामकारक एवं अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोद्वे विध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः । यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोव्रं व्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स द्रव्यभावयोनिमित्तनैमित्तिकमावं प्रथयन्नकर्तृ त्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं, परद्रव्यं निमित्तं नैमित्तिका आत्मनो रागाविभावाः । यद्यदेवं नेष्येत तवा प्रध्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपवेशोऽनथंक एव स्यात् तवनर्थकत्वे स्वेकस्यैवात्मनो रागाविभावनिमित्तत्वापत्तौ freeकर्तृत्वानुषगान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथासति तु रागादीनामकारक एवात्मा । " ( समयसार २८३- २८५ आत्मख्याति )
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