Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
ε६४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार:
अज्ञानी बनता है तब ज्ञानावरण कर्मपर निमित्त का आरोप किया जाता है ।' शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से तो जीव अज्ञानी बनता नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त लक्षणों से सिद्ध है कि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में 'सब जीव सिद्ध समान शुद्ध हैं । आलापपद्धति में कहा भी है कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारीजीवः सिद्धहरू शुद्धात्मा । अर्थात् कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक ( निश्चयनय ) नय है जैसे संसारीजीव सिद्धसमान शुद्ध आत्मा है । अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से जीव अज्ञानी है । जैसा अशुद्ध निश्चयनय के लक्षण में ऊपर कहा गया है कि कर्मोपाध भावों को ग्रहण करने वाला अशुद्ध निश्चयनय है । आलापपद्धति में भी इसी प्रकार कहा है- कर्मोपाधि सापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादि कर्मजभाया आत्मा । अर्थात् अशुद्धद्रव्यार्थिक ( निश्चयनय का विषय कर्मोपाधि सापेक्ष भाव हैं जैसे कर्म से उत्पन्न होनेवाले क्रोधादिकभावमयी आत्मा है ।
अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से श्रात्मा 'अज्ञानी' तो कहलाया जा सकता है, किन्तु 'आत्मा अज्ञानी अपनी भूल से बनता है' ऐसा अशुद्ध निश्चयनय से भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अशुद्ध निश्चयनय के लक्षण में इस भाव को 'कर्म अर्थात् कर्म से उत्पन्न होने वाले भाव' कहा है । यदि जीव अपने ज्ञानगुण का घातक स्वयं हो जावे तो जीवद्रव्य का ही अभाव हो जावेगा । दूसरे, द्रव्य अपने स्वभाव का घातक स्वयं नहीं होता जैसा समयसार गाथा २७९ में कहा है
एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमई रायमादीहि । राइज्जदि अहिंदु सो रागावीहि वोसेहि ॥
ज्ञानी जीव शुद्ध है वह रागादिभावों से अपने श्राप तो नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रागादि दोषों से रागादिरूप किया जाता है ।
श्री समयसार ग्रंथ में अशुद्धनिश्चयनय को निश्चयनय न कहकर व्यवहारनय कहा है । गाथा ५७ को टीका में आचार्य श्री जयसेनजी ने लिखा है -वस्तुस्तु शुद्ध निश्चयापेक्षया पुनरशुद्ध निश्चयोपि व्यवहार एवेति भावार्थ: । वास्तव में शुद्ध निश्चयतय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय व्यवहार ही है । गाथा ६८ की टीका में इसप्रकार लिखा हैअशुद्ध निश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकमपिक्षयाभ्यन्तर रागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञा लभते तथापि शुद्ध निश्वयापेक्षया व्यवहार एवं इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनय विचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं । अर्थात् द्रव्यकमें की अपेक्षा से अन्तरंग रागादि चेतन हैं ऐसा मानकर के यद्यपि अशुद्धनिश्चयनय का निश्चयसंज्ञा दी जाती है, किन्तु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो व्यवहार ही है । निश्चयनय व व्यवहारनय के विचार के समय सर्वत्र इसप्रकार जानना चाहिए । स्वयं श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी 'रागादि श्रध्यवसानभाव को जीव' व्यवहारनय से कहा है-
ववहारस्त वरीसण सुवदेसो वष्णिदो जिणवरेहि ।
जीवा एवे सद्य अज्झवसाणादओ भावा ॥४६॥ स० सा०
Jain Education International
ववहारेण दु एदे, जीवस्स हवंति वण्णमावीया ।
गुणठाणंता भावा ण बु केई णिच्छयणयस्स ॥ ५७ ॥ स० स०
अर्थ – ये सब अध्यवसानादि भाव हैं, वे जीव हैं ऐसा जिनवरदेव ने जो उपदेश दिया है, वह व्यवहारनय का मत है ।। ४६ ।। ये वर्णादि से लेकर गुणस्थानादि पर्यन्त जो भाव कहे गये हैं वे व्यवहारनय से तो जीव के ही होते हैं, इसलिये सूत्र में कहे हैं, परन्तु निश्चयनय के मत में इनमें से कोई भी जीव के नहीं है ।
'जीव अपनी भूल से अज्ञानी बनता है' शंकाकार के इन शब्दों में अज्ञान का कारण 'जीव की भूल' कहा है । यह विचारना है कि 'जीव' में भूल सहेतुक है या निर्हेतुक । यदि भूल निर्हेतुक है तो भूल जीव का स्वभाव हो
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org