Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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जायगा। यदि सहेतुक है तो यह विचार करना है कि इसमें हेतु क्या है ? यदि अन्य भूल को हेतु कहा जायगा तो उस अन्य भूल में तीसरी अन्य भूल हेतु होगी, इसप्रकार अनवस्था दोष आ जायगा। यदि भूल में द्रव्यकर्मोदय को कारण कहा जावे तो अज्ञान में भी द्रव्यकर्मोदय को क्यों न कारण मान लिया जावे।
यदि कहा जाय कि पंचास्तिकाय गाथा ५७ में औदयिक आदि भावों का कर्ता जीव को कहा है तो इसका उत्तर यह है कि इसी गाथा में द्रव्य कर्मोदय का वेदन करते हए जीव को औदयिकभावों का कर्ता कहा है। स्वयं इस गाथा से स्पष्ट है कि 'अज्ञानता' कर्मोदय के कारण से हुई है, बिना कर्मोदय के नहीं हुई है । श्री जयसेनाचार्यजी ने टीका में लिखा है-अशुद्धनिश्चयेन कर्ता भवति अर्थात् अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से कर्ता होता है। टीका के अन्त में लिखा है-जीवो निश्चयेन कर्मजनितरागादिविभावानां स्वशद्धात्मभावनाच्युतः सन् कर्ता भोक्ता भवतीति व्याख्यान मुख्यत्वेन गाथा गता। अर्थात् जीव स्वशुद्ध आत्मभावना से च्यूत होकर कर्मजनित रागादिभावों का निश्चयनय से कर्ता भोक्ता होता है। इस गाथा वटीका से भी यही सिद्ध होता है कि जीव में अज्ञानता कर्मजनित है।
पंचास्तिकाय गाथा ६२ की टीका में श्रीमत् जयसेनजी ने लिखा है-अशद्ध षटकारकीरूपेण परिणममानः सन्नशधमात्मानं करोति । अभेद षटकारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानः कारकान्तरं नापेक्षते अर्थात् अशुद्ध षटकारकरूप परिणाम करता हुआ अशुद्धजीव अपने अशुद्धभावों को करता है । अभेद षट्कारक की अपेक्षा से अन्यकारक की अपेक्षा नहीं करता। यह कथन भी अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से है । जीव का विशेषण 'अशुद्धता' शब्द ही जीव के साथ अन्यद्रव्य का सम्बन्ध प्रकट करता है, क्योंकि बिना दूसरे के सम्बन्ध के एकद्रव्य में अशुद्धता प्रा नहीं सकती। षट्कारक में 'कारण' कोई कारक नहीं है अतः अभेद षट्कारक के कथन के द्वारा कारण का निषेध नहीं होता है। इस गाथा व टीका से भी यह सिद्ध नहीं होता कि जीव अपनी भूल से ही अज्ञानी बनता है।
'निश्चयनय कहता है कि जीव अपनी भूल से अज्ञानी बनता है तब ज्ञानावरणीयकर्म को निमित्त का आरोप किया जाता है ।' श्री कानजी स्वामी का यह कथन हो या किसी अन्य का हो, किन्तु यह कथन उपयुक्त आगम अनुकूल नहीं है और युक्ति से भी बाधित है।
-जे. सं. 24-10-57/VI/ १. क्रोधादि जीव का पारिणामिक भाव नहीं है, परन्तु औदयिक है २. जीव स्वतन्त्र अवस्था में क्रोधादि नहीं करता ३. कषाय निष्कारण नहीं होती
४. कर्म प्रेरक निमित्त हैं, इसका खुलासा शंका-गुजराती आत्मधर्म वर्ष ३ अंक १२ पृष्ठ २२० पर इस प्रकार लिखा है-'जो भाव परकारण की अपेक्षा नहीं रखते हैं सो पारिणामिकभाव हैं। क्रोधादि कषायभाव भी पारिणामिकभाव है क्योंकि ये भाव परकारण की अपेक्षा नहीं रखते हैं, इससे वे निष्कारण हैं। क्रोधादि सब भाव स्वतन्त्र अकारणीय हैं इसलिये खरेखर वह सब माव पारिणामिकभाव से हैं। कषाय पारिणामिकभाव हैं, क्योंकि वह जीव की अपनी योग्यता से होता है, परन्त वाका कारण कोई पर नहीं है इसलिये स्व की अपेक्षा से कहो तो वे निष्कारण है तातै पारिणामिक है। जब परनिमित्त की अपेक्षा से लेकर कहें तो व्यवहार से कर्मोदय को ताका कारण मान करके वाको औयिकभाव कहा जाता है । परन्तु खरेखर तो विभावजीवकी पर्यायकी इस समय की स्वतन्त्र योग्यता से वह भाव हुआ है।
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