Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६५९
उपयुक्त प्रागम प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि अज्ञान व रागादि इस जीव के व्यवहारनय से अथवा कर्मउपाधिसहित निश्चयनय से हैं, किन्तु शुद्धनिश्चयनय से ये प्रज्ञान व रागादिभाव जीव के नहीं हैं। निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से पर्याय को ग्रहण नहीं करता। प्रज्ञान व रागादि विकारीपर्याय हैं अतः निश्चयनय की अपेक्षा से जीव के रागादि व अज्ञानभाव नहीं हैं, व्यवहारनय की अपेक्षा से रागादि व अज्ञानभाव जीव के हैं।
-जै. सं. 28-11-57/VI/ ब. प्र. स. पटना
शंका नं०१ में शंकाकार ने 'योग्यता' व 'आरोप' शब्दों का प्रयोग किया है। योग्यता का अर्थ इस प्रकार है-'योग्यस्य भावः योग्यता, सामर्थ्य' अर्थात् योग्य का भाव योग्यता है जिसका अर्थ सामर्थ्य ( शक्ति ) होता है। आरोप का शब्दार्थ है-'प्रन्यस्मिन अन्यधर्मावभासे यथा रज्ज्वा सर्पज्ञानम्' अर्थात् जिसमें अन्य धर्म ( जो धर्म न हो उसका ) अवभासमान हो जैसे रस्सी में सांप का ज्ञान होना । ( जो वास्तव में न हो, किन्तु उस जैसी मालूम पड़ती हो। जैसे रस्सी वास्तव में सांप नहीं है, किन्तु साँप जैसी मालूम पड़ने लगती है अतः रस्सी में साँप का आरोप किया जाता है। )
प्रत्येक जीव में 'केवलज्ञान' शक्तिरूप से सर्वदा है। अभव्य जीव में यद्यपि केवलज्ञान व्यक्त नहीं होगा, किन्तु केवलज्ञान अभव्यजीव में भी शक्तिरूप से है। यदि शक्तिरूप से भी केवलज्ञान न हो तो केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। कहा भी है-यदि पुनः शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटते । ( वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा १४ टीका) यह कथन द्रव्याथिक (निश्चय ) नय की अपेक्षा से है, क्योंकि पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय से तो केवलज्ञान छद्मस्थ के है ही नहीं। छद्मस्थ के जब प्रावियमाण केवलज्ञान ही नहीं है तो उसका आवारक केवलज्ञानाबरण भी पर्यायाथिकनय से सम्भव नहीं है। कहा भी है-णाणावरणीयं ॥५॥ दध्वद्विणए अवलंविज्जमारणे आवरिदणाण भागासावरणे वि जीवे अस्थि । पज्जवट्टियणए अवलविज्जमाणे आवरिज्जमाणणाणभागाणत्थि, तेसि तदुवलंभाभावा । ण च एवं सुत्तं पज्जवट्टियणमवलंबिय द्विदं, तवावरिज्जमाणावारयववहारामावा। किंतु दवटियणयमवलंबिय सुत्तमिदमवद्विदं तेणेत्थ आवरिज्जमाणावारय भावो ग विरुज्झदे । अर्थ-ज्ञानावरणीय कर्म है ।।सूत्र ५॥ द्रव्याथिकनय का अवलम्बन करने पर आवरण किये गये ज्ञान के अंश सावरण जीव में भी होते हैं। पर्यायाथिकनय का अवलम्बन करने पर आद्रियमाण ज्ञानभाग सावरण जीव में नहीं होते, क्योंकि वे ज्ञानभाग उक्त जीव में नहीं पाये जाते। यह सूत्र ( नं. ५) पर्यायाथिकनय का अवलम्बन करके स्थित नहीं है, क्योंकि उस नय में आद्रियमाण और आवारक इन दोनों के व्यवहार का अभाव है। किन्तु यह सूत्र ( नं. ५) द्रव्याथिकनय का अवलम्बन करके अवस्थित है इसलिये यहाँ पर आवियमारण और आवारकभाव विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं । (षट्खण्डागम पुस्तक ६ )
निश्चयनय की ( द्रव्याथिकनय ) अपेक्षा प्रतिसमय प्रत्येक जीव में केवलज्ञान की योग्यता है जिसको ज्ञानावरणकम ने प्रावरण कर रखा है। यह बात उपयुक्त आगमप्रमारण से भले प्रकार सिद्ध हो जाती है। 'ज्ञान का प्रावरण ( प्रज्ञानता ) व रागादिभाव जीव के मात्र अपनी योग्यता से ही होते हैं और द्रव्यकर्मोदय कारण नहीं है, यह कथन पागम विरुद्ध है।'
ज्ञान का प्रावरण ( अज्ञानता) व रागादिभाव जीव की स्वभाव पर्याय नहीं हैं, क्योंकि ये भाव सिद्धों में नहीं पाये जाते अतः ये विभावपर्याय हैं। पर्याय दो प्रकार की होती है एक स्वपर अपेक्ष और दूसरी निरपेक्ष । जो पर्याय स्वपर अपेक्ष है वह विभावपर्याय है। पज्जाओ दुवियप्पो, सपदावेक्खो य णिरवेक्खो ॥१४॥ नियमसार । विभाव पर्यायोनाम रूपावीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमान । (प्रवचनसार गाथा ९३ टीका ) अर्थ-रूपादि के या ज्ञानादि के स्वपर के कारण विभावपर्याय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org