Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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से व्यक्तरूप से भी रहते हैं, ऐसा समझना चाहिये । अन्तरात्मा को अवस्था में बहिरात्मा भूतपूर्वनय से घृत के घट के समान और परमात्मा का स्वरूप शक्तिरूप से तथा भावी नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी जानना चाहिये । परमात्मावस्था में अन्तरात्मा तथा बहिरात्मा भूतपूर्वनय की अपेक्षा जानने चाहिये। इसप्रकार अनेकान्त व नयों के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान कार्यकारी है।
-]. सं. 30-8-56/VI/ बी. एल. पद्म, शुजालपुर (१) द्रव्य कर्मोदय तथा रागादि का अविनाभाव सम्बन्ध है (२) कथंचित् रागादि भाव जीव के हैं, कथंचित् नहीं
(३) रागादि भावों की उत्पत्ति में द्रव्यकर्मोदय वास्तविक हेतु है शंका-क्या निश्चयनय की अपेक्षा 'ज्ञान की हानि ( आवरण ) व रागादि भाव जीव के मात्र अपनी योग्यता से ही होते हैं और द्रव्यकर्मोदय के कारण नहीं होते, द्रव्यकर्मोदय पर कारणपने का केवल आरोप किया जाता है ऐसा है या अज्ञान आदि व रागादिभावों में द्रव्यकर्मोदय वास्तविक कारण है ?
शंका-अज्ञान व रागाविभावों का अविनामावसम्बन्ध जीव से है या द्रव्यकर्मोदय से है ? । शंका-अज्ञान व रागादिमाव जीव के क्या निश्चयनय से हैं या व्यवहारनय से ?
समाधान-उपर्युक्त तीनों शंकाओं का एक साथ विचार किया जाता है। पर्यायाश्रित 'व्यवहारनय' है और द्रव्याश्रित 'निश्चयनय' है । ( समयसार गाथा ५६, आत्मख्याति वृत्ति ) अविनाभाव सम्बन्ध को 'व्याप्ति' भी कहते हैं। व्याप्ति का लक्षण परीक्षामुख में इसप्रकार कहा गया है-"इसके होते ही यह होता है इसके न होते होता ही नहीं जैसे अग्नि के होते ही धुआं होता है, अग्नि के न होते धुआं होता ही नहीं।
( अ० ३ सूत्र १२-१३) ज्ञान के आवरण ( अज्ञान ) व रागादि का आत्मा के साथ तो अविनाभाव सम्बन्ध या तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है, क्योंकि सिद्धपर्याय ( अवस्था ) में आत्मा ( जीव ) तो है, किन्तु अज्ञान ( ज्ञान का आवरण ) व रागादि नहीं हैं। द्रव्यकर्मोदय के साथ अज्ञान व रागादि का अविनाभाव सम्बन्ध पाया जाता है, क्योंकि जहां-जहां वातिया द्रव्यकर्मोदय है वहाँ-वहाँ अज्ञान आदि अवश्य हैं और जहाँ-जहाँ कर्मोदय नहीं है वहाँ-वहाँ अज्ञानादि भी नहीं हैं। अथवा जहां-जहाँ अज्ञान व रागादि हैं वहाँ-वहाँ कर्मोदय है और जहाँ रागादि व अज्ञान नहीं हैं वहाँ घातिया कर्मोदय भी नहीं है । ( समयसार आत्मख्याति गाया ६१ )
जैसे सफेद रुई के वस्त्र को लाल रंग से रंग लेने पर लाल रंग के सम्बन्ध से वस्त्र भी व्यवहारनय से लाल वस्त्र कहा जाता है, क्योंकि निश्चयनय से लालिमा वस्त्र की नहीं है किन्तु रंग की है। सम्बन्ध के कारण रंग की ललाई को वस्त्र की ललाई व्यवहारनय से कही गई है उसी प्रकार पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बन्धपर्याय प्रसिद्ध है ऐसा जीव व्यवहारनय से अज्ञानी, रागी, द्वेषी कहलाता है, क्योंकि अज्ञान, राग, द्वेष, जीव के स्वभाव नहीं हैं किन्तु पुद्गल कर्मोदय के हैं। बन्ध के कारण कर्मोदय के अज्ञान, राग, द्वेष को जीव के राग अज्ञान व्यवहारनय से कहा जाता है इसलिए प्रज्ञान, राग, द्वेष जो भाव हैं वे व्यवहारनय से जीव के हैं और निश्चयनय से जीव के नहीं हैं ऐसा ( भगवान का स्याद्वाद युक्त) कथन योग्य है। ( समयसार आत्मख्याति गाथा ५६ की टीका ) समयसार गाथा ६ में भी कहा है कि 'जीवन प्रमत्त है न अप्रमत्त है क्योंकि निश्चयनय द्रव्याश्रित है और प्रमत व अप्रमत्तदशा जीव की पर्याय है। निश्चयनय की दृष्टि में पर्याय गौण हैं। समयसार गाथा ४६
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