Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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गाथा की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने लिखा है कि जब यह प्रात्मा शुभ या अशुभ रागभाव से परिणमित होता है तब परिणाम स्वभाव होने से शुभ या अशुभ होता है। इन गाथाओं से यह सिद्ध होता है कि जिस समय जीव राग (कषाय) भाव से परिणत होता है उस समय वह जीव रागमयी हो जाता है । इस रागमयी जीव के ज्ञान की क्या अवस्था होती है ? उसे श्री अकलंकदेव स्वरूप सम्बोधन में बताते हैं
कषाय: रञ्जितं चेतस्तत्त्वं नैवावगाहते
नोलोरक्त ऽम्बरे रागो, दुराधेयो हि कौकुमः ॥ १७ ॥ अर्थ-जैसे नीले कपड़े पर केसर का रंग नहीं चढ़ सकता वैसे ही क्रोधादि कषायों से रंजायमान हुए मनुष्य का चित्त, वस्तु के असली स्वरूप को नहीं पहिचान सकता।
रागी ( कषायी ) जीव के यथाख्यातसंयतगुण का अभाव रहता है। यदि कोई यह शङ्का करे कि संयतगुण का प्रभाव होने पर जीव का भी अभाव हो जावेगा । सो ऐसी शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि जिसप्रकार उपयोग जीव का लक्षण कहा गया है इसप्रकार संयम जीव का लक्षण नहीं होता है । अतएव संयम के अभाव में जीवद्रव्य का प्रभाव नहीं होता (१० ख० ७.९६ ) । उस कषायी जीव में उत्तम क्षमादि दसधर्म प्रगट नहीं होते।
इसप्रकार आगम प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि राग-द्वेष जीव की विकारी पर्याय है। जीव उन पर्यायों से तन्मय होता है, उन पर्यायों का मात्र ऊपरी असर नहीं होता, किन्तु उनसे प्रात्मा का दर्शन व चारित्र ( संयम ) गुण घाता जाता है जिससे आत्मा का बहुत बिगाड़ होता है । आत्मा रागावस्था में अशुद्ध होती है, शुद्ध नहीं होती, किन्तु शुद्ध होने की शक्ति रहती है। यदि कषायावस्था में प्रात्मा शुद्ध है तो क्या अकषाय अवस्था में अशुद्ध होगी ? राग शब्द ही प्रात्मा की अशुद्ध अवस्था का वाचक है। नयविवक्षा समझकर यह समाधान ग्रहण करना चाहिए।
-ज.सं. 26-7-56/VI/ ला. रा. दा. कराना
शंका-क्या जीव सदैव (हर समय ) संसारी अवस्था में भी शुद्ध निर्विकार रहता है अथवा कर्माधीन अवस्था में वह हर समय अशुद्ध ही रहता है ? तात्पर्य यह है कि यदि कर्मवश संसारी जीव में एक समय में अशुद्ध भाव होते हैं तो क्या उसी समय उसमें शुद्ध भाव का रहना भी सम्भव है ? यदि है तो किस प्रकार ? यदि एक ही समय में वो परस्पर विरोधीभाव शुद्ध व अशुद्ध संसारी जीव में नहीं रह सकते तो ऐसी अवस्था में जीव-जो निश्चयनय से सदैव ( हर समय ) शुद्ध व निर्विकल्प कहा जाता है, वह किस प्रकार है ?
समाधान-वृहद् द्रव्य संग्रह की गाथा १३ के 'सम्वे सुद्धाहु सुद्धणया' शब्दों को लेकर यह शङ्का की गई प्रतीत होती है अतः इसका समाधान वृहद् द्रव्य संग्रह को संस्कृत टीका के आधार से किया जाता है। गाथा २० की टीका में इस प्रकार कहा है-सर्वे जीवा यथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण निरावरणाः शुधबुधकस्वभावस्तथा। व्यक्तिरूपेण व्यवहारनयेनापि, न च तथा प्रत्यक्षविरोधादागम विरोधाच्चेति ।
अर्थ:-जैसे शक्तिरूप शुद्धनिश्चयनय से सब जीव आवरणरहित तथा शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं वैसे ही व्यक्तिरूप व्यवहारनय से भी हो जाय, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष और पागम से विरोध है। इस आगम प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि संसारावस्था में भी सब जीव शक्तिरूप से शुद्ध हैं, किन्तु व्यक्तिरूप से अशुद्ध हैं। यदि संसार अवस्था में जीव में शुद्ध होने की शक्ति न मानी जावे तो जीव कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा अतः मोक्षमार्ग का उपदेश निरर्थक हो जावेगा। यदि संसार अवस्था में भी व्यक्तिरूप से शुद्ध मान लिया
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