Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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५६ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
।
इस प्रकार
तो कदाचित्
क्योंकि पूर्व
जावे तो भी मोक्षमार्ग का उपदेश निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि जिसके शुद्ध अवस्था (मोक्ष) व्यक्त है अर्थात् प्राप्त है उसको मोक्ष की प्राप्ति के उपदेश से क्या लाभ? वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते है ( प० सं० ५१८७ ) । वर्तमानपर्याय एकसमय की एक ही होगी, क्योंकि एकसमय में एक द्रव्य की दो पर्याय नहीं होती । यदि शुद्धपर्याय है तो उससमय शुद्धपर्याय नहीं हो सकती और यदि अशुद्धपर्याय है तो उससमय शुद्धपर्याय नहीं हो सकती, क्योंकि शुद्ध और प्रशुद्ध परस्पर विरोधी हैं। अथवा जिससमय अवस्था विशेष में मिश्र परिणाम होते हैं उस समय शुद्ध व अशुद्धभाव एक जीव में एक साथ भी रह सकते हैं। अनेकान्त से यह घटित हो जाता है। अनेकान्त का अर्थ है - अनेक विरोधी धर्म एकसाथ एकद्रव्य में रहते हैं । ष० खं० पु० १ पत्र १६७ पर कहा भी है— अनेकान्त का यह अर्थ समझना चाहिए कि जिन धर्मों का जिस आत्मा में प्रत्यन्त अभाव नहीं है वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं जबकि समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रम से एक आत्मा में रहना सम्भव है किसी आत्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है, स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहन्त भी देव हैं ऐसी सम्यग्मिथ्यारूप श्रद्धावाला पुरुष पाया जाता है । अनेकान्त का यह भी अर्थ नहीं कि परस्पर विरोधी व अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ एक आरमा में रहना सम्भव हो । यदि सम्पूर्ण धर्मो का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य अचैतन्य धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहने का प्रसंग श्रा जाएगा ( ब० खं० ५० १ / १६६-१६७ ) इसी प्रकार शुद्ध व अशुद्धभाव का एक आत्मा में क्रम से रहना सम्भव है तो कदाचित् किसी प्रात्मा में एक साथ भी एकदेश शुद्ध-अशुद्ध दोनों का रहना भी सम्भव है शक्ति और व्यक्ति के कथन को स्पष्ट करने के लिये वृहद द्रव्य संग्रह के टीकाकार ने इस प्रकार लिखा है- मिध्यादृष्टिभव्ये जीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च अभव्यजीवे पुनर्वहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मवं शक्तिरूपेणैव न च भावि नंगमनयेनेति । यद्यभव्यजीवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्तते तहि कथममध्यत्वमिति चेत् परमात्मशक्त ेः केवलज्ञानादिरूपेण व्यक्तिनं भविष्यतीत्यभव्यत्वं शक्तिः पुनः शुद्धनयेनोभयत्र समाना यदि पुनः शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तथा केवलज्ञानावरणं न घटते भय्याभव्यद्वयं पुनरशुधनयेनेति भावार्थ: । एवं यथा मिथ्यादृष्टिसंज्ञे] बहिरात्मनि नयविभागेन दर्शितमात्मत्रयं तथा शेषगुणस्थानेष्वपि । तद्यथा बहिरात्मावस्यायामन्तरात्मपरमात्म। इयं शक्तिरूपेण भाविनंगममयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम् अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वनयेन घृतघटवत् परमात्मस्वरूवं तु शक्तिरूपेण भाविनंगमनयेन व्यक्तिरूपेण च परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मवहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति ।
अर्थ- मिष्याष्टि भव्यजीव में बहिरात्मा तो व्यक्तरूप से रहता है मोर अन्तरात्मा व परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं एवं भाविनंगमनय की अपेक्षा व्यक्तरूप से भी रहते हैं। मिध्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तरूप से और प्रन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं; भावी नैगमनय की अपेक्षा अभव्य में अन्तरात्मा तथा परमात्मा व्यक्तरूप से नहीं रहते। कदाचित् कोई कहे कि यदि भव्य जीव में परमात्मा शक्तिरूप से रहता है तो उसमें अभय्यश्व कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि प्रभव्य जीव में परमात्मशक्ति की केवलज्ञानादिरूप से व्यक्ति न होगी इसलिए उसमें अभव्यत्व है। शुद्धनय की अपेक्षा परमात्मा की शक्ति तो मिध्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनों में समान है। यदि अभव्य जीवों में शक्तिरूप से भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरणकर्म सिद्ध नहीं हो सकता सारांश यह है कि भव्य, प्रभव्य ये दोनों अशुद्धनय से हैं। इसप्रकार जैसे मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा में नवविभाग से तीनों आत्माओं को बतलाया है उसी प्रकार शेष गुणस्थानों में भी घटित करना चाहिए। जैसे कि बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं और भावी नैगमतय
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