Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थात् चेतना, अनुभव, अनुभूति, संवेदन दो प्रकार का है, एक दर्शनरूप दूसरा ज्ञानरूप । उनमें से दर्शनरूप स्वसंवेदन इस प्रकार है
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आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकन इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्तिः, आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं तदृद्दर्शनमिति लक्ष्य निर्देशः ।' धवल पु० १ ० १४८ - १४९ ।
अर्थ - आलोकन अर्थात् श्रात्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि जो अवलोकन करता है उसे आलोकन या श्रात्मा कहते हैं । और वर्तन अर्थात् व्यापार को वृत्ति कहते हैं । तथा प्रालोकन अर्थात् ग्रात्मा की वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापार को आलोकनवृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं और उसी को दर्शन कहते हैं ।
"आत्मविषयोपयोगस्य दर्शनत्वेऽङ्गीक्रियमाणे आत्मनो विशेषाभावाच्चतुर्णामपि दर्शनानामविशेषः स्यादिति चेन्नंष दोषः, यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादकं स्वरूपसंवेदनं तस्यतदर्शनव्यपदेशान्न दर्शनस्य चातुविध्यनियमः ।"
( धवल १1३८ )
यदि कोई यह कहे कि आत्मा को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार कर लेने पर आत्मा में कोई विशेषता नहीं होने से चारों ( चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल ) दर्शनों में भी कोई भेद नहीं रह जावेगा ? तो प्राचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि जो जिस ज्ञान का उत्पन्न करनेवाला स्वरूपसंवेदन है, उस स्वरूप संवेदन को उसी नाम का दर्शन कहा जाता है ।
"ततः स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।" धवल पु० १ पृ० ३८३ ।
स्व ( अपने ) रूप के संवेदन को दर्शन स्वीकार कर लेना चाहिये ।
इसप्रकार श्री वीरसेन आचार्य स्वसंवेदन अर्थात् आत्मसंवेदन को दर्शनरूप चेतन परिणाम कहते हैं । सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और मिथ्याज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं । प्रमाण का लक्षण निम्न प्रकार है
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स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ॥ १॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् | २| स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ||६|| ( आत्माभिमुखतया प्रतीतिः प्रतिभासनम् अर्थस्यैव तदुम्मुखतया ॥७॥ घटमहात्मना वेद्मि ॥८॥ कर्मवत् कर्तृकरण क्रियाप्रतीतेः ॥ ९ ॥ शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥ १० ॥ - परीक्षामुख स्व अर्थात् अपने आपके निश्चय करने वाले ज्ञानको और अपूर्व अर्थ के निश्चय करने वाले ज्ञानको ( सम्यग्ज्ञान को ) प्रमाण कहते हैं। क्योंकि प्रमाण हित की प्राप्ति और श्रहित का परिहार करने में समर्थ है अतः प्रमाण सम्यग्ज्ञान ही है । जिसप्रकार पदार्थ के प्रभिमुख उसके जानने को अर्थ व्यवसाय कहते हैं उसी प्रकार स्व अर्थात् अपने आपके प्रभिमुख होकर जो अपने आपका प्रतिभास होता है अर्थात् श्रात्मप्रतीति या आत्म-निश्चय होता है वह स्वव्यवसाय है अर्थात् सम्यग्ज्ञान है। मैं घट को अपने आपके द्वारा जानता हूँ, इस वाक्य में 'घट' कर्म के समान 'मैं' कर्ता, 'अपने आपके द्वारा' करण और जानने रूप क्रिया की भी प्रतीति होती है । पदार्थ के समान
शब्द का उच्चारण नहीं करने पर भी सम्यग्ज्ञानी को के उच्चारण नहीं करने पर भी घट आदि का अनुभव पर भी 'अहं' 'अहं' इस प्रकार अन्तर्मुखाकाररूप से स्वव्यवसायात्मकरूप प्रमाण है अर्थात् सम्यग्ज्ञान है ।
अपने आपका अनुभव होता है । अर्थात् जैसे घट आदि शब्द होता है, उसी प्रकार बाहर में शब्द का उच्चारण नहीं करने सम्यग्ज्ञानी को अपने आपका स्वयं अनुभव होता है। वही
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