Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४७
'मिथ्यात्व समवेतज्ञानस्यव ज्ञान कार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात् पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्'
-धवला पु० १ पृ० ३५३ अर्थ-मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही अज्ञान कहा है, क्योंकि वह ज्ञान का कार्य नहीं करता है जैसे पुत्रोचित कार्य को नहीं करनेवाले पुत्र को ही अपुत्र कहा जाता है ।
'कधं मिच्छाविष्टिणाणस्स अण्णाणतं ? णाणकज्जाकरणादो। किं णाणकज्जं? णावस्थसहहणं । ण तं मिच्छाविटिम्हि अस्थि । तदो णाणमेव अण्णाणं, अण्णहा जीवविणासप्पसंगा। ण च एस ववहारो लोगे अप्पसिद्धो, पुत्रकज्जमकुणते पुत्ते वि लोगे अपुत्तववहारवंसणादो।' धवल पु० ५ पृ० २२४
अर्थ-मिथ्याष्टिजीवों के ज्ञानको अज्ञानपना कैसे कहा ? मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, ज्ञान का कार्य नहीं करता है इसलिये उसको अज्ञान कहा है। ज्ञान का कार्य क्या है ? जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है। इस प्रकार का ज्ञान कार्य मिथ्यादृष्टि में नहीं पाया जाता है, इसलिये मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को अज्ञान कहा है । यहाँ पर अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं लेना चाहिए अन्यथा ज्ञानरूप जीव के लक्षण का विनाश होने से लक्ष्यरूप जीव के विनाश का प्रसंग प्राप्त होगा । ज्ञान का कार्य नहीं करने पर ज्ञान में अज्ञान का व्यवहार लोक में अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि पुत्रकार्य को नहीं करने वाले पुत्र में भी लोक में अपुत्र कहने का व्यवहार देखा जाता है।
श्री वीरसेनाचार्य ने 'पुत्रोचित कार्य न करनेवाला पुत्र अपुत्र है' इस दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट कर दिया कि ज्ञान के अनुकूल यदि कार्य नहीं है अर्थात् चारित्र धारण नहीं किया तो वह ज्ञान निष्फल होने से अज्ञान ही है। इसीलिये ज्ञान का फल चारित्र भी कहा है।
"अज्ञाननिवृत्तिहानोपावानोपेक्षाश्च फलम् ॥५॥" परीक्षामुख
अर्थ-अज्ञान की निवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षा यह ज्ञान का फल है। यहाँ पर भी श्रीमन्माणिक्यनन्दिआचार्य ने 'हान'. 'उपादान' और 'उपेक्षा' शब्दों द्वारा चारित्र को ज्ञान का फल बतलाया है। इसी बात को श्री वीरसेन आचार्य ने भी कहा है
"किं तद्ज्ञानकार्यमिति चेत्तत्त्वार्थे रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च।" अर्थ-तत्त्वार्थ में रुचि. निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना ज्ञान का फल है। इन आर्षवाक्यों से भी स्पष्ट है कि चारित्र धारण किये बिना ज्ञान निष्फल है।
इसी बात को श्री ब्रह्मदेवसूरि ने वृहद्रव्यसंग्रह को टीका में कहा है कि जबतक रागादि का पूर्णरूप से त्याग नहीं होता है तबतक वह ज्ञान निष्फल है ।
अन्धकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति । स च कूपे पतनं सादिकं वा न जानाति, तस्य विनाशे दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशेप्रवीपफलं नास्ति । यस्त रुपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति। तथा कोऽपि रागादयो हेयामदीया न भवतीति भेदविज्ञान जानाति स कर्मणाबध्यते तावत, अन्यः कोऽपि रागादिभेद विज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिकमनभवति तावतांशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ३६ टीका
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