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न हो और पाठ - प्रवचन निर्बाध गति से चले, यह सोचकर शान्तला के गुरुओं को भी साथ लायी हैं। इससे हम उन लोगों की श्रद्धा और विद्यार्जन की आसक्ति की थाह जान सकते हैं। हमें हमारी हेग्गड़ती जी के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।" यौं कहती हुई माँ के पास बैठी शान्तला को बुलाया, "अम्माजी, इधर आओ।"
युवरानी के बुलाने पर शान्तला उठकर पास तक जाकर थोड़ी दूर बड़ी गम्भीरता के साथ खड़ी हो गयी।
"दूर क्यों खड़ी हो। पास आओ, अम्माजी" कहती हुई युवरानी ने हाथ आगे बढ़ाये । शान्तला बहुत गम्भीर भाव से ज्यों-की-त्यों खड़ी ही रही। पास नहीं गयी । तब युवरानी ने ही खुद झुककर अपने हाथों से उसके हाथ को पकड़कर उसे अपने पास खींच अपने हाथ से उसके कोमल कपोलों को सहलाकर नजर उतारते हुए,
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'अम्माजी, तुमने बहुत सुन्दर गाया और नृत्य किया। प्रेक्षक और श्रोताओं की नजर लग गयी होगी। ईश्वर करे कि तुम दीर्घायु हो और तुम्हारी प्रतिभा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़े। यही ईश्वर से मेरी विनती है।" कहकर शान्तला को अपनी बाँहों में कसकर आलिंगन किया। शान्तला हक्की-बक्की रह गयी। माँ की ओर देखने लगी तो माँ ने इशारे से बताया कि घबराने की जरूरत नहीं। माँ का इशारा पाकर वह सहज भाव से युवरानी के बाँहों में बँधी रही।
युवरानी ने उसे उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया और चन्दलदेवी से कहा, 14 'कल हमने जो सामान चुनकर रखा था उसे उठवा लाइए। "
चन्दलदेवी दासी बोम्मले के साथ गयी और शीघ्र ही लौट आयी। बोम्मले दासी ने सन्दूकची आगे बढ़ायी। चन्दलदेवी ने उसे खोलकर उसमें रखी हीरे जड़ी चमकती हुई माला निकाली।
युवरानी ने कहा, "इसे इस नन्हीं सरस्वती को पहना दीजिए।"
शान्तला युवरानी की गोद से उछलकर दूर खड़ी हो गयी और बोली, "अभी यह मुझे नहीं चाहिए।"
युवरानी यह सुनकर चकित हुईं। राजकुमार बल्लाल और बिट्टिदेव भी चकित होकर शान्तला की ओर देखने लगे। माचिकब्बे सन्दिग्ध अवस्था में पड़ गयीं। उन्होंने सिर झुका लिया।
चामव्वा को गुस्सा आ गया। कहने लगी, " युवरानीजी दें और उसे इनकार बित्ते - भर की लड़की है, ऐंठन दिखाती है। यह भूल गयी कि युवरानी के सामने बैठी है !"
शान्तला चामया की ओर मुँह करके बोली, " क्षमा कीजिएगा। मैंने गर्व से इनकार नहीं किया । विद्या सीखने के बाद, गुरुदक्षिणा देकर विधिपूर्वक गुरु से आज्ञा और आशीर्वाद लेकर गाना और नृत्य सार्वजनिकों के सामने प्रदर्शित करने के बाद ही
पट्टमहादेवी शान्तला : 49