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"मतलब?"
राजकुमार के इस प्रश्न से पद्मला को ध्यान आया कि उसने एकाएक क्या कह दिया। उसका चेहरा सहज लज्जा से लाल हो आया । दृष्टि जमीन की ओर झुक गयी।
कुमार बल्लाल उत्तर की प्रतीक्षा में उसे देखने लगा। "अभी आयी," कहती हुई पद्मला वहाँ से भाग गयी।
कुमार बल्लाल ने पुकारा, "पद्मला...पन...।" उसे आवाज तो सुनाई दी, मगर लौटो नहीं।
भागते वक्त जो दरवाजे का परदा हटाया था वह वैसे ही हिलता रहा । बल्लाल ने सपझा वह परदे के पीछे खड़ी होकर उंगली से परदा हिला रही होगी। वह पलंग से धीरे से उठा और परदे की ओर गया। उधर परदे का हिलना बन्द हो गया।सावधानी से उसने परदा हटाया। कोई नहीं था। पलंग की ओर लौटा, और पैर पसारकर लेट गया।
घण्टी बजाने के इरादे से बजाने का डण्डा उठाना चाहा। फिर उसका मन बदला। इण्डे को वहीं रख दिया।
'आपको मैं चाहती हूँ'--यह ध्वनि सजीव होकर उसके कानों में झंकृत हो रही थी। एक हृदय की बात ने दूसरे हृदय में प्रविष्ट होकर उसमें स्पन्दन पैदा कर दिया था। इस स्पन्द से वह एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कर रहा था। हृदय प्रतिवनित हो कह रहा था : 'ठीक, मैं भी तो तुम्हें चाहता हूँ। मुझे भी तुमसे प्यार हैं।' होठ हिले नहीं, जीभ भी गतिहीन थी, गले की ध्वनि-तन्त्रियाँ भी ध्वनित नहीं हुईं, कहीं कोई स्पन्दन नहीं । साँस चल रही थी, उसी निःश्वसित हवा पर तैरती हुई बात निकली थी। भाव समाधि से जागे तो मन में एक नयी स्फूर्ति भर आयी। उसने घण्टी बजायी और परदे की तरफ देखने लगा।
परदा हटा। जो आयी वह पद्मला नहीं। उसकी बहन चामलदेवी थी। अनजाने ही बल्लाल के मन में पद्मला छा गयो थी। इस धुन में उसने सोचा न था कि पद्मला के बदले कोई दूसरी आएगी। किसी दूसरे की वह कल्पना ही नहीं कर सकता था। क्योंकि घण्टी बजने पर खुद उपस्थित होने की बात स्वयं पद्मला ने कही थी न?
"बुलाते रहने पर भी भागी क्यों ? मैं भी तो तुम्हें चाहता हूँ।"बल्लाल ने कहा।
चामलदेवी कदम आगे न रखकर वहीं खड़ी रही। यहीं से पूछा, "क्या चाहिए था राजकुमार?"
"तुम्हें ही चा..." बात वहीं रुक गयी। उसने वहाँ खड़ी हुई चामला को एक पल देखा। और फिर "तुम्हारी बहन कहाँ है?" कुछ संकोच से पूछा।
"उसे ही चाहिए क्या? मुझसे न हो पाएगा क्या? कहिए, क्या चाहिए ?" चामलदेवी मुस्कुराकर बोली। उसके बात करने के ढंग में कोई व्यंग्य नहीं था, सीधी
पट्टमहादेवी शान्तला :: 113