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"फिर खाना..." "हुआ, तुम्हारे भाई के घर । क्यों, अभी तक सोयी नहीं?" "नींद हराम करने की गोली खिलाकर अब यह सवाल क्यों?" "क्या कहा, तुम्हें नी आयी ले में किया "अपने अन्तरंग से ही पूछ लीजिए, आप जिम्मेदार हैं या नहीं।"
"मुझे तो इसका कोई कारण नहीं दिखता। बेहतर है, अपनी यात आप खुल्लमखुल्ला स्पष्ट कह दें।"
"मैंने अपनी बात आपसे छिपायी कब है ? सदा खुलकर बोलती रही हूँ। जिस दिन मैंने राजकुमार को युद्धक्षेत्र से वापस बुलाने की बात आपसे कही उसी दिन से
आप बदल गये हैं। क्यों ऐसा हुआ, कुछ पता नहीं लगा। आज दुपहर की आपकी स्थिति देखकर मैं काँप उठी थी। राजमहल में किसी से कोई ऐसा व्यवहार हुआ हो, जिससे आपको सदमा पहुंचा हो, हो सकता है, पर आपने मुझे कुछ भी बताना जरूरी नहीं समझा। आपके मन का दुख-दर्द जो भी हो उसकी मैं सहभागिनी हूँ मगर मुझे लगता है कि आप मुझसे कुछ छिपाते रहे हैं। मैं कोई बड़ी राजकार्य को ज्ञाता नहीं, फिर भी मेरी छोटी बुद्धि को भी कुछ सूझ सकता है। जो हो सो मुझसे कहने की कृपा
दण्डनायक ने कुछ निर्णीत बात स्पष्ट रूप से कही, "जो अपने मन को बरा लगे उसे दूसरों पर स्पष्ट न करके मन ही में रहने देना चाहिए। किसी ज्ञानी ने कहा हैं कि अपना दुख-दर्द दूसरों में बाँटने का काम नहीं करना चाहिए। एक दूसरे महात्मा ने यह भी कहा है कि बाँट न सकनेवाली खुशी खुशी नहीं, जबकि दूसरों में बँटा दुःख भो दुःख नहीं। अत: अब तुम इस बारे में कोई बात ही मत उठाओ।"
"आपका सिद्धान्त अन्य सामाजिक सन्दर्भ में ठीक हो सकता है। पति-पत्नी सम्बन्धों के सन्दर्भ में नहीं, जहाँ शरीर दो और आत्मा एक होती है। दोनों के परस्पर विश्वास पर ही दाम्पत्य जीवन का सूत्र गठित होता है, मेरो माँ सदा यही कहा करती थी। आपसे विवाहित हुए दो दशक बीत गये। अब तक हम भी वैसे ही रहे। परन्तु अब कुछ दिर से आप अपने दुख-दर्द में मुझे शामिल नहीं करते । मुझसे ऐसी कौनसी गलती हुई है, इसकी जानकारी हो तो अपने को सुधार लूँगी।"
"तो एक बात पूछंगा। तुम्हें अपने बच्चों की कसम खाकर सच बताना होगा। बताओगी?"
"सत्य कहने के लिए कसम क्यों?" "तो छोड़ो।" "पूछिए।" "न, न, पूछना ही दोनों के लिए बेहतर है।"
पट्टमहादेवी शान्तला :: 3657