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*शंका हो तो देख आओ।' प्रभु का उत्तर था।
वह परदे की ओर गयी। मैं उसके आने से पहले ही आड़ में हो गया था। वह लौट आयी तो मैं फिर उसी छेद के पास जा खड़ा हुआ। अबकी वह उस आसन पर नहीं बैठी। सीधी प्रभु के पलंग की ओर गयी। उसका आँचल खिसक गया था। उसकी परवाह न करके वह आगे बढ़ गयी थी।
और शायद प्रभु को उसका यह काम पसन्द नहीं आया था। वे उठ खड़े हुए उसे पहले के ही आसन पर बैठने को कहा तो वह प्रभु के दोनों पैर पकड़कर चरणों के पास बैठ गयी और बोली, 'मुझे आसन नहीं, आपके पाणिग्रहण का भाग्य चाहिए।' प्रभु ने झुककर पैर छुड़ा लिये और उसे पीछे की ओर सरकाकर, खुद पलंग के पास गये और घण्टी बजायी ।
मैंने भी दरवाजे पर की घण्टी बजायी और अन्दर गया। इतने में वह स्त्री कपड़े सँभालकर आसन पर बैठ चुकी थी। प्रभु ने दूसरे तम्बू में ले जाने का आदेश देते हुए कहा, 'सहारा खोकर तकलीफ में फैंसी यह स्त्री भेष बदलकर सहारा पाने आयी है । इसकी मर्यादा की रक्षा कर गौरव देना हमारा कर्तव्य है। इसलिए सावधान रहना कि कोई इसके पास न फटके। इसे तम्बू छोड़कर कहीं बाहर न जाने दें।' लेकिन वह स्त्री न हिली, न डुली। मुझे भी कुछ नहीं सूझा कि क्या करना चाहिए। पहले उसे पुरुष समझकर हाथ पकड़कर बिना संकोच ले गया था, पर अब ऐसा करना उचित नहीं लगा। प्रभु की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा तो वे उससे बोले, 'अब जाओ, सुबह आपको बुलाएँगे। तभी सारी बातों पर विचार करेंगे।'
वह उठ खड़ी हुई, मगर बढ़ी नहीं, कुछ सोचती रही। फिर प्रभु की ओर देखकर कहने लगी, 'आप बड़े विचित्र व्यक्ति हैं। मैं कौन हूँ यह जानने तक का कुतूहल नहीं जगा आपमें ? मुझे विजितों का स्वप्न बनकर उनकी इच्छा के अनुसार लेकिन अपनी इच्छा के विरुद्ध परमारों के अन्तःपुर में रहना चाहिए था। परन्तु अब अपनी इच्छा... ' किन्तु उसकी बात बीच ही में काटकर प्रभु ने कहा, 'जो भी हो, कल देखेंगे अभी तो आप जाइए ही ।' और में उसे दूसरे तम्बू में छोड़ आया। दूसरे दिन भोजनोपरान्त उसे प्रभु का दर्शन मिला। प्रभु मुझे आदेश दिया कि उसे चार अंगरक्षकों के साथ वहाँ पहुँचा आना । जहाँ वह जाना चाहे। बाद में वह कहीं गयी और उस दिन प्रभु से उसकी क्या बातें हुई-- यह सब मालूम नहीं पड़ सका।"
"मैं भी शिविर में था। मुझे यह मालूम ही नहीं हुआ।" सिंगिमय्या ने कहा। "यह बात चार-पाँच लोग ही जानते हैं। बाकी लोगों को उतना भी मालूम नहीं, जितना मैं जानता हूँ । पर प्रभु को तो सब कुछ मालूम है।" मायण ने बताया । "प्रभु जानते हैं कि तुमने छिपकर कुछ देखा है ?"
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"हीं जानते हैं। मैंने ही कहकर क्षमा माँग ली थी। प्रभु बड़े उदार हैं। कहा,
पट्टमहादेवी शान्तला : 397