Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 396
________________ होगा, पिताजी ?" पद्मला ने पूछा। उसे इस बात का संकोच हो रहा था। विजय के बारे में सीधा सवाल पूछ न सकी। "विजय होने पर भी उत्सव नहीं होगा, अम्माजी । युवराज अधिक जख्मी हो गये हैं, यह सुनने में आया है।" "हे भगवान्, राजकुमार तो कुशल हैं न?" कुछ सोचकर बोलने के पहले ही ये शब्द आपसे आप उसके मुँह से निकल पड़े। 44 'राजकुमार तो कुशल हैं। उन्हीं की होशियारी और स्फूर्ति के कारण, सुनते हैं, युवराज बच गये। उत्सव में स्वयं युवराज भाग न ले सकेंगे. इसलिए धूमधाम के साथ सार्वजनिक उत्सव नहीं होगा। परन्तु मन्दिर वस्त्र तियों में मंगल कामना के रूप में पूजा आदि होगी।" "युवरानीजी के पास खबर पहुँचायी गयी हैं, पिताजी ?" " वे दोरसमुद्र की ओर प्रस्थान कर चुकी हैं। शायद कल-परसों तक यहाँ पहुँच जाएँगी। इसी वजह से तुम्हारे मामा ने तुम्हारी माँ को बुलवा लिया है।" पालाको प्रकारान्तर से अपने प्रिय की कुशलता का समाचार मिला। इतना ही नहीं, उसे यह बात भी मालूम हुई कि वे युद्ध चतुर भी हैं। इस सम्बन्ध में विस्तार के साथ पूछने और जानने में उसे संकोच हो रहा था। यह बात तो एक ओर रही, उसे यह ठीक नहीं लग रहा था कि यह समाचार बताये बिना ही माँ मामा के यहाँ चली गर्यो, जबकि कोई बहाना ढूँढ़कर अपने भावी दामाद के बारे में कुछ-न-कुछ जरूर कहती ही रहतीं। माँ अपने लिए और मेरे लिए भी जो समाचार सन्तोषजनक हो, उसे बिना बताये रह जाने का क्या कारण हो सकता है ? पिताजी ने मुझे बुलवा भेजा। इस तरह उनके बुलावे के साथ माँ के इस व्यवहार का कोई सम्बन्ध है ? इन विचारों से उभरी तो वह यह समझकर वहाँ से उठी कि केवल इतना समाचार कहने को ही पिताजी ने बुलवाया होगा। लेकिन मरियाने ने मौन तोड़ा "ठहरी, बेटी, तुमसे कुछ क्लिष्ट बातें करनी हैं, तुम्हारी माँ की गैरहाजिरी में ही तुमसे बात करनी है, इसीलिए तुम्हें बुलवाया है। किवाड़ बन्द कर साँकल लगा आओ ।" पद्मला साँकल लगाकर बैठ गयी तो वे फिर बोले " बेटी, मैं तुमसे कुछ बातें पूछूंगा। तुम्हें निःसंकोच, बिना कुछ छिपाये स्पष्ट उत्तर देना होगा। दोगी न?" पिताजी की ओर कुछ सन्दिग्ध दृष्टि से देखती हुई उसने सर हिलाकर अपनी स्वीकृति व्यक्त की । "बलिपुर के गाड़े की लड़की के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं ?" " पहले मैं समझती थी कि वह सर्वोली है, लेकिन बाद में धीरे-धीरे मैं समझी 402 : पट्टमहादेवी शान्तला :

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