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गुरुओं के भी पैर छुए। बिट्टिदेव के भी पैर छूने लगी तो वह पीछे सरकता हुआ बोला, "न-मन, मुझे क्यों?"
परन्तु उसके लिए सुरक्षित वह प्रणाम उसके कहने के पूर्व ही उसके चरणों में समर्पित हो चुका था ।
पान- - सुपारी का कार्यक्रम चला। युवरानी ने उस दिन पान देकर जो वादा कराया था, वह बिट्टदेव और शान्तला को याद आ गया। उन दोनों ने अपने-अपने मन में उसे दोहराया। ब्रिट्टिदेव ने अपने बायें हाथ की उँगली की अंगूठी पर दृष्टि डाली। शान्तला ने उस दिन बिट्टिदेव को तृप्त करने के लिए दिये हुए हार और पदक को छाती से लगा लिया।
किसी तरह की धूमधाम के बिना, घर तक ही सीमित सान्तला का जन्मदिन समारम्भ सम्पन्न हुआ। वहाँ उपस्थिति सबके मन में शान्ति विराज रही थी। लोगों की दृष्टि कभी शान्तला की ओर तो कभी विट्टिदेव की ओर जाती रही, मानो उनके अन्तरंग की आशा की क्रिया यही दृष्टि हो ।
श्रद्धा-निष्ठा से युक्त हेग्गड़े परिवार के साथ युवरानी और राजकुमारों ने बलिपुर में सुब्यवस्थित रूप और सुख-शान्ति से महीनों पर महीने गुजारे। सप्ताहपखवारे में एक बार युद्ध-शिविर से समाचार मिल जाता था। बिट्टिदेव और शान्तला की मैत्री गाढ़ से गाढ़तर होती जा रही थी । उदयादित्य और शान्तला में, समवयस्कों में सहज ही होनेवाला निष्कल्मष प्रेम स्थायी रूप ले चुका था। युवरानीजी और गड़ती के बीच की आत्मीयता देखनेवालों को चकित कर देती थी। शिक्षकगण अपने शिष्यों की सूक्ष्मग्राही शक्ति से आश्चर्यचकित ही नहीं अपितु तृप्त होकर यह कहने लगे थे कि हमारी विद्या कृतार्थ हुई। कुल मिलाकर यही कहना होगा कि वहाँ हर कहीं असूया - रहित निर्मल प्रेम से आप्लावित परिशुद्ध वातावरण बन गया था।
दूसरी ओर, दोरसमुद्र में किसी बात की कमी न रहने पर भी किसी में मानसिक शान्ति या समाधान की स्थिति नजर नहीं आती थी। चामध्ये सदा यही महसूस करती कि कोई छाया की तरह उसके पीछे उसी का अनुगमन कर उसे भयभीत कर रहा है। उसे किसी पर विश्वास नहीं होता, वह सबको शंका की ही दृष्टि से देखती । उसका मन वामशक्ति की ओर अधिकाधिक आकर्षित हो रहा था, लेकिन वह स्वयं वहाँ जाए या उसे ही यहाँ बुलाए, किसी तरह उसके भाई प्रधान गंगराज को इसकी खबर मिल जाती जिससे उसको सारी आशाएँ मिट्टी में मिल जातीं। उस दिन की उस घटना के बाद वह सर उठाकर अपने पतिदेव से या भाई प्रधान गंगराज से मिल भी नहीं सकती थी। वे भी एक तरह से गम्भीर मुद्रा में मुँह बन्द किये मौन हो रहते। तब वह सोचती कि मेरी यह हालत देखकर वह चण्ट हेग्गड़ती फूलकर कुप्पा हो जाएगी। ऐसी स्थिति में मेरा जीवन ही किस काम का ? मैं क्या करूं ?
पट्टमहादेवी सान्तः: २५