Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 389
________________ वह बोला, 'परमार भोज को पकड़ना हो तो इसी रात को पकड़ना साध्य है। कल सुबह के पहले वह अन्यत्र चला जाएगा। मैं प्रभु का गुप्तचर हूँ। अब तुम मुझे अन्दर न जाने दोगे तो राजद्रोह का दण्ड भोगना होगा। इसलिए मुझे अन्दर जाने दो, यही दोनों के लिए अच्छा है। प्रभु के लिए भी यह हित में होगा।' 'प्रभु सो रहे हैं, उन्हें जग्गाया कैसे जाए?' मैंने धीरे से पूछा। "वे वास्तव में मेरी प्रतीक्षा में हैं, सोये नहीं होंगे।' उसने धीरे से उत्तर दिया। 'अगर यह बात निश्चित होती तो वे मुझसे नहीं कहते?' मैंने फिर प्रश्न किया। 'उन्होंने सोचा होगा, कह दिया है। उसके इस उत्तर पर मेरा मन बहुत असमंजस में पड़ गया। अन्दर जाने देना भी मुश्किल, न जाने देना भी मुश्किल ! मैंने एक निश्चय किया। प्रभु की रक्षा करना मेरे लिए प्रधान है इसीलिए इस नवागन्तुक के पीछे, उसे बिना पता लगाये जाकर अन्दर के परदे के पास तलवार निकालकर तैयार रहूँगा। इसके पास तो कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं है। खाली हाथ आया है। परमार भोज और काश्मीर के हर्ष-दोनों के छिपकर रहने से प्रभु परेशान थे। अगर आज ही रात को भोज बन्दी बना लिया गया तो...? यह सब सोचकर मैंने कहा, 'तुम यहीं रहो, प्रभु जागते होंगे तो तुम्हें अन्दर चला जाने दूंगा।' परन्तु दूसरे ही क्षण, ऐसा लगा कि एक अपरिचित को अकेले अन्दर जाने दैना ठीक नहीं। इसलिए मैंने फिर कहा, 'नहीं, तुम मेरे ही साथ आओ, प्रभु जाग रहे होंगे तो तुम अन्दर चले जाना, मैं बाहर ही रहूंगा। यदि सो रहे होंगे तो दोनों लौट आएंगे।' _ 'तुम बड़े शक्की मालूम पड़ते हो।' वह फुसफुसाया तो मैं बोला, "यह स्थान ही ऐसा है। प्रभु हम पर पूर्ण विश्वास रखकर निश्चिन्त हैं। ऐसे वक्त पर हमारी गैरसमझी के कारण कुछ अनहोनी हो जाए तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? इसलिए हम तो हर बात को तब तक सन्देह की ही दृष्टि से देखते हैं जब तक हमें विश्वास न हो जाए।' 'इतना सन्देह करनेवाले खुद धोखा खाएंगे।" कहकर उसने मुझे डराना चाहा। 'अब तक तो ऐसा नहीं हुआ,' कहकर मैंने उसका हाथ पकड़ा और नकेल लगे पशु की तरह उसे अन्दर ले आया। फिर हम द्वार के परदे के पास गये। उसमें एक छोटा-सा छेद था। उससे रोशनी पड़ रही थी। मैंने झाँककर देखा। प्रभु पलांग पर बैठे थे। इस नवागन्तुक की बात में कुछ सचाई मालूम पड़ी। मैंने कहा, 'ठीक है, तुम अन्दर जाओ, मगर जल्दी लौटना।' इस पर वह पूछने लगा, 'किस तरफ से जाना है?' इस पर मुझे फिर शंका हुई। लगा कि मैं ही पहले अन्दर जाऊँ और प्रभु की अनुमति लेकर तब इसे अन्दर भेजूं-यही अच्छा होगा। वह आगे बढ़ ही रहा था कि मैंने उसे वहीं रोक दिया और घण्टी बजायी तो अन्दर से प्रभु ने पूछा, 'कौन है?' 'मैं हूँ मायण, एक व्यक्ति स्वयं को हमारा गुप्तचर बताता है और कहता है कि पट्टमहादेवी शान्तल्ला :. 15

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