________________
होशियार रहने को कहती हैं। आज भी इतना ही कहा। मगर इस बार एक विशेष बात कही, वह यह कि इसे सदा पहने रहें और किसी को छूने न दें।" पद्मला ने कहा। फिर टीका की, "दूसरे लोग छू लेंगे तो क्या होगा, पिताजी? माँ को शायद घिस जाने का डर है।"
"ऐसा कुछ नहीं। अगर ऐसा डर होता तो पेटी में सुरक्षित रखने को कहतीं। चाहे वह कुछ भी रहे, तुम लोगों को यह पसन्द आया न । मन को अच्छा लगा है न?"
बोप्पि बीच में ही बोल उठी, "माँ ने भी अपने लिए ऐसा ही हार-पदक बनवा लिया है, पिताजी।"
__ "ऐसा है, लल्ली ? देखा अपनी अप्पा को, उन्होंने मुझसे कहा ही नहीं। जाकर कोई बुला तो लाज, पास्तूं।"
इसकी भनक लगते ही देकचे खिसक गयी और संक्षेप में मालकिन को सारा वृत्तान्त सुनाकर बोली, अभी बुलावा भी आएगा। वह रसोई की और चली गयी, बाल कटाने की बात वह छिपा गयी थी। स्वयं बोप्पि बुलाने आयी तो पूछा, "क्यों बेटी, तुम्हारा हार तुम्हारे पिता को कैसा लगा। बताया।"
"बोले, अच्छा है। अपने लिए भी एक ऐसा ही हार-पदक बनवाकर देने को आपसे कहने को बोला है।" यह सुनकर चामञ्चे हँसी रोक न सकी।
"माँ, पुरुष भी कहीं ऐसा हार पहनते हैं ?"
"अच्छा, चलो, यूछे।" गयी तो देखते ही समझ गयी कि अब पतिदेव प्रसन्न हैं, सोचा अब कोई बात न छेड़े। रात को तो तनहाई में मिलेंगे ही।
"सुनते हैं, दण्डनायिकाजी ने भी ऐसा ही हार और पदक बनवा लिया है। मुझे बताया भी नहीं।" आँख मटकाते हुए मरियाने ने ही छेड़ा।
"कहाँ, अभी तो दर्शन मिला।" कहकर उसने साड़ी का पल्ला जरा-सा ऐसा हटाया जिससे पदक भी दिख गया।
"अच्छा है। बच्चियों थकी हैं, उन्हें कुछ फल-बल दो, दूध पिलाओ।" "आप भी साथ चलें तो सब साथ बैठकर उपाहार करेंगे।" "चलो।"
बच्चियों और पत्नी के पीछे चलता हुआ वह सोच रहा था, इस पेटीनुमा पदक के अन्दर क्या रखा गया है सो न बताकर इन बच्चियों के दिल में इसने विद्वेष का बीज नहीं बोया, यह बहुत ही ठीक हुआ।
सत रोज की तरह ही आयी, मगर चामब्वे को सूर्य की गति भी बहुत धीमी मालूम पड़ रही थी। वे जैन थे. उन्हें सूर्यास्त के पूर्व भोजन कर लेना चाहिए, लेकिन उसे लग
पट्टपहादेवी शान्तला :: 365