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"एक लोटा पानी ला।" दण्डनायक ने आदेश दिया। वह पानी ले आयी, तब तक वहीं खड़ा रहा। लाते ही लेकर खड़े-खड़े पीने लगा।
देकब्बे ने धीरे-से कहा, "कहते हैं, पानी खड़े-खड़े नहीं पीना चाहिए।"
"ठीक है।" कहकर इधर-उधर देखा और दीवार से लगे एक आसन पर बैठकर पानी पिया। पानी पीने का उपायट मंगा देखका देकचे ने एका "थोड़ा पानी और ले आऊँ, मालिक?"
"न, काफी है।" कहकर लोटा वहीं रखकर बाहर निकला। अन्दर के प्रकोष्ठ से चामन्चे के कमरे का द्वार खुलता था, उसे कुछ सरकाकर चामन्चे ने यह देख लिया था। उसने प्रकोष्ठ से लगी अन्दर की ओर बारहदरी में प्रवेश किया कि चामब्बे ने अपने कमरे से देकवे को आवाज दी। देकल्वे लोटा लेकर जाती हुई मालिक की तरफ प्रश्नार्थक दृष्टि से देख रही थी कि आवाज सुनकर मालकिन के कमरे की तरफ चली गयी।
"देकच्चे, आज मालिक का रंग-ढंग कुछ विचित्र-सा लगता है। अपने कमरे से जब वे बाहर आएं तो मुझे बताना।"
"उनका आज का रंग-ढंग मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। वे तो तभी उठे, और हाथ-मुँह धोकर बाहर भी चले गये।"
"तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि आज उनका रंग-ढंग विचित्र है।"
"मालिक को क्या मैं आज ही देख रही हूँ, माँ, आज का उनका व्यवहार ऐसा ही लगा।" देकव्वे ने उत्तर दिया।
"क्या लगा?" देकब्चे ने जो गुजरा, सो कह सुनाया।
"तुम्हारा सोचना ठीक है। जाकर देख आ कि वे फिर अपने कमरे में गये कि नहीं?" __"शायद वे वहाँ गये होंगे जहाँ बच्चियाँ है, माँ।" ।
"आमतौर पर वे वहाँ नहीं जाया करते । आज की रीति देखने पर सम्भव है कि वहाँ गये हों। उस तरफ जाकर देख तो आ सही।"
"जो आज्ञा, माँ।" देकल्वे नाट्याभ्यास के उस विशाल प्रकोष्ठ की ओर धीरेधीरे चलो।
बड़े प्रकोष्ठ में उस कमरे का दरवाजा खुलता था। वह उस कमरे के पास गयी ही थी कि नाट्याचार्य बाहर निकले। अचानक नाट्याचार्य को देखकर देकन्चे ने पूछा, "यह क्या आचार्य, आज अभ्यास इतनी जल्दी समाप्त हो गया।"
"ऐसा कुछ नहीं, बच्चों में सीखने का उत्साह जिस दिन ज्यादा दिखता है उस दिन देर तक अभ्यास चलता है। उत्साह कम हो तो अभ्यास सीमित रह जाता है। सीखनेवालों की इच्छा के अनुसार हमें चलना पड़ता है। आज अचानक दण्डनायकजी
पट्टमहादेवी शान्तला :: 6.3