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लिया और जल्दी-जल्दी पति के कमरे की ओर कदम बढ़ाये ।
इधर वे राजदर्शन के समय का लिबास निकालकर केवल धोती- अँगरखा पहने पलंग पर पैर पसारे चिन्तामग्न बैठे थे। वह ठिठक गयी, सोचा कि राजमहल में किसी गहन विषय पर चर्चा हुई होगी। इसलिए बात के लिए समय उपयुक्त नहीं समझ वह वैसी ही प्रांगण में आ गयी।
बोप्पि माता-पिता के आगमन की प्रतीक्षा में वहीं झूले पर बैठी थी, उससे बोली, "बेटी, तुम्हारे पिताजी अभी सोये हुए हैं, जगने पर उनसे कहलाऊँगी, अब जाकर खेलो।"
इतने में सन्धिविग्रहिक दण्डनायक नागदेव के घर से पद्मला और चामला लौटीं । उन दोनों ने एक साथ कहा, "माँ, सन्धिविग्रहिक ने कण्ठहारों को देखकर बड़ी प्रशंसा की और पूछा, ये कहाँ बनवाये, किसने बनाये। हमने कहा, हमें मालूम नहीं, चाहें तो माँ से दर्याप्त कर बताएँगी।"
"देखो, बेटी चौष्पि, सब कहते हैं यह बहुत सुन्दर है। तुम्हारी दीदियों ने जो कहा, वह सुन लिया न अब मान जाएगी ?"
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'पिताजी कहें, तभी मानूँगी, " बोप्पि ने मुँह फुलाकर वही बात दुहरायी।
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'जण उनसे ही कही। उन्हें जाने दो।
इतने में नौकर ने आकर नाट्याचार्य के आने की सूचना दी तो तीनों अभ्यास करने चली गयीं।
वह फिर पतिदेव के कमरे में गयी, पलंग पर बैठकर धीरे से उनके माथे पर हाथ फेरा और पूछा, "स्वस्थ तो हैं न, आपको यों लेटे देख घबड़ा गयी हूँ।" वे कुछ बोले नहीं, उसकी तरफ देखा तक नहीं तो उसने फिर पूछा, "बोल क्यों नहीं रहे हैं, राजमहल में मन को दुखाने जैसी कोई बात हुई है क्या ?"
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'तुम्हारा राजमहल की बातों से क्या सरोकार, इन बातों के बारे में आगे से कभी मत पूछना। मैं बताऊँगा भी नहीं।"
"छोड़ दीजिए। अब तक बताया करते थे, इसलिए पूछा, आगे से नहीं पूछूंगी। आप मुझपर पहले की तरह विश्वास नहीं रखते, यह मेरा दुर्भाग्य है।" उसकी आँखें भर आर्यो, वह रुक-रुककर रोने लगी।
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'ऐसी क्या बात हुई जो तुम रोओ।" पतिदेव की सहानुभूति के बदले इस असन्तोष से उसके दिल में दुःख उमड़ पड़ा। मानो उन्होंने उसे लात मारकर दूर ढकेल दिया हो ।
"विधि वाम हुआ तो भला भी बुरा होय, हमारा भाग्य ही फूटा है। मैंने कौनस्त्री गलती की है सो मेरी ही समझ में नहीं आ रही है। जो कुछ भी मैंने किया सो बिना छिपाये ज्यों-का-त्यों कारण के साथ समझाकर बताया। इतना जरूर है, वामशक्ति
पट्टमहादेवी शान्ता 36