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उदयादित्य को भी देखकर शान्तला ने कहा। बिट्टिदेव की समझ में अब आया कि रेबिसय्या ने तनहाई की परेशानी दूर करने के लिए क्या किया है।
उसका मन उत्साह से भर गया। शान्तला को सन्तोषपूर्ण स्थागत मिला, "पधारना चाहिए, छोटी हेग्गड़ती को।" कहते हुए जब बिट्टिदेव उठ खड़े हुए।
"मुझे यह सब पसन्द नहीं। राजकुमार आसीन हों।" कहती हुई वह सामने बैठने के ही इरादे से पीताम्बर ठीक से संभालने लगी। बिट्टिदेव ने शान्तला को सीधा सामने देखा, जैसे पहले कभी देखा न हो और आज ही प्रथम बार देख रहा हो।
"बैठिए, क्या देख रहे हैं?" कहकर वह अपनी पीठ की ओर देखने लगी तो बिट्टिदेव को हँसी आ गयी। शान्तला ने फौरन उसकी ओर मुड़कर पूछा, "क्यों क्या
हुआ?"
बिदिदेव ने उत्तर में सवाल ही किया, "छोटी हेग्गड़तीजी को उस तरफ क्या दिख रहा है जो इस तरह मुड़-मुड़कर देख रही हैं ?"
"राजकुमार कुछ आश्चर्य से जिधर देख रहे थे उधर ही मैं भी देखने लगी
थी।"
जह दास अकेले भीमा "तो क्या जो आपको दिखा यह मुझे न दिखेगा।" "हाँ, हाँ, जब दृष्टि-भेद हो तब ऐसा ही होता है।"
"अच्छा जाने दीजिए। आपकी बातों से यह स्वीकृति मिली कि मुझे मालूम होनेवाले अनेक विषय आपको भी मालूम नहीं पड़ते। अच्छा, अब आप बैठिए।"
मौका देखकर रेविमय्या, दासब्वे और उदयादित्य वहाँ से गायब हो चुके थे। बैटते हुए बिट्टिदेव ने इर्द-गिर्द देखकर पुकारा, "उदय, उदय।"
"इधर चमेली के फूल चुन रहा हूँ।" दूर से उदयादित्य की आवाज सुन पड़ी। कुछ देर तक दोनों को मौन दृष्टि हरी घास पर लगी रही।।
वह सोच रही थी कि बुलाया इसलिए था कि अकेले बैठे-बैठे ऊब गये हैं। अब मौन होकर बैठ गये, इसके क्या माने! दृष्टि बिट्टिदेव की तरफ रहने पर भी बात अन्दर-ही-अन्दर रह गयी थी। दायें हाथ के सहारे बैठी शान्तला ने ठीक बैठकर पैरों का स्थान बदला। पाजेब ने मौन में खलल पैदा कर दिया।
बिट्टिदेव की दृष्टि फौरन शान्तला पर पड़ी जो यही सोच रहा था कि बात की शुरुआत कैसे करें। वह बोला, "रावत मायण ने अपनी कहानी आपके गुरुजी को सुनायी है क्या?"
"उसके बारे में जानना चाहकर भी मैंने गुरुजी से पूछना अनुचित समझा।" "उस दिन रावत ने जो क्रोध प्रकट किया उससे लगा कि उन्होंने बहुत दुख सहा
पट्टमहादेवी शान्तला : २४