Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ रहा। वह उसके पास सरक आयी और चार-पाँच फूल गुंथवाकर बोली, "अन्न आप कोशिश स्वयं करें।" बिट्टिदेव ने कोशिश की। फूल मसलने नहीं पाये, टूटकर गिरे भी नहीं। हाँ, डोरे में उल्टे-सीधे बंध गये। उसकी ओर संकेत करती हुई शान्तला बोली"ऐसे ही करते जाइए। अभ्यास से यह बनने लगेगा।" "उदय तुम सीखोगे?" बिट्टिदेव ने पूछा। "नहीं भैया," उदयादित्य ने कहा। थोड़ी देर फिर मौन। फूल गूंथे जा रहे थे, गजरे बन रहे थे। अचानक उदयादित्य ही बोल उठा, "भैया, आज शान्तला का जन्मदिन है। जो गजरा तुम बना रहे हो उसे आज वही भेंट करो तो कितना अच्छा हांगा!" "क्या भेंट कर रहे हो?' सिंगिमय्या की आवाज पर सबकी दृष्टि गयी। बिटिदेव ने अधबना गजरा वहीं रखकर उटने की कोशिश की। "राजकुमार, आप बैठिए, आओ मायण । घर में बच्चों को न पाकर बहन ने देख आन को मुससे हो वा चले भागे। पत्र माँ तो हमें चलना चाहिए।" "बैंठिए, माँ ने युलाया है क्या, मामाजी!" "नहीं, यों ही दर्याप्त किया था।" और बैठते हुए कहने लगे, "अपना गजरे बनने का काम चलाये रखिए।" मायण भी बैठ गया। शान्तला और दासचे ने अपनी बात आगे बढ़ायो। "यह क्या, घर छोड़कर सब यहाँ आकर बैठे हैं!" सिंगिमय्या ने सवाल किया। "यों ही बैठे-बैठे ऊब गये थे तो इधर चले आये। अब फूल चुनकर गजरे बना रहे हैं।" बिट्टिदेव ने उत्तर दिया और दासच्चे से पूछा, "रेविमय्या कहाँ गया, अभी तक नहीं आया !" "उसे युवरानीजी ने किसी गाँव में काम पर भेजा है," उत्तर दिया सिंगिमय्या ने। इतने में उदयादित्य उठा, "मैं घर जाऊँगा।" शान्तला ने कहा, "दासनं, जाओ, उन्हें घर तक पहुँचा आओ।" वे दोनों चले गये। मायाग मौन बैठा था। सिंगिमय्या ने उसे छेड़ा, "क्यों मायण, आज गूंगे की तरह बैठे हो? बोलते नहीं? कुछ कहो। तुम्हारा पुराना अनुभव ही सुन लें। मन तो बहलेगा।" "हम क्या सुनाएँगे। किस्सा तो मारने-काटनेवाले सुना सकेंगे। मैं कवि होता तो अवश्य बड़े दिलचस्प ढंग से सही-झूठ सब नमक-मिर्च लगाकर किस्सा गढ़ता और सुनाता।" मायण ने कहा। "अब जन्त्र यहाँ कवि कोई नहीं तो, तुम ही कुछ कहो।" सिंगिमय्या ने आग्रह ३! :- पट्टपहादेवी शान्तला

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