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गाँठ लगी, न ही फूल गुंथ पाये बल्कि वे नीचे जा गिरे।
___ यह देखकर शान्तला बोली, "कहाँ तलवार पकड़नेवाले ये हाथ और कहाँ ये सुकोमल फूल?"
"फूल की कोमलता ज्यों-की-त्यों बनाये रखनेवाले ये तुम्हारे हाथ तलवार भी पकड़ सकते हैं तो मेरे हाथ फूल नहीं गूंथ सकेंगे?"
"यह कोई ब्रह्मा-विद्या नहीं। सीखने पर ही यह कर सकोगे, परन्तु राजकुमार को यह सीखने की जरूरत ही क्या जबकि राजमहल में गजरा बनानेवालों के झुण्ड के-झुण्ड इसी काम के लिए तैनात हैं। शान्तला ने कहा।
"तो भी सीखना तो चाहिए ही, सिखा देंगी?''
"हाँ, हाँ। उसमें क्या रखा है, अभी सिखा दूँगी। परन्तु सीखने के लिए राजकुमार को यहाँ मेरी बगल में बैठना होगा।" बिट्टिदेव तुरन्त उठा और उसकी बाओर बैठ गया।
अपने हाथ का गजरा एक तरफ रखकर, उनके हाथ में केले का एक रेशा देकर तथा दूसरा अपने हाथ में लेकर वह समझाने लगी, "देखिए, यह रेशा बायें हाथ में याँ पकड़िए और दायें हाथ की तर्जनी और मध्यमा उँगली से डोरे को ऐसा घुमाव दीजिए।" बिट्टिदेव बसा करने लगा तो वह फिर बोली, "न, इतनी दूर का घुमाव नहीं, यह डोरा फूल के बिल्कुल पास होना चाहिए।"
उसके हाथ की तरफ देखते हुए भी बिट्टिदेव ने फिर वैसा ही किया। लेकिन शान्तला ने फिर टोका, "बायें हाथ के फूल रेशे के घुमाव के अन्दर धीरे से गूंथकर दायें हाथ की डोरी धीरे से थोड़ी कसनी चाहिए। इससे फूल डोरे में बंध भी जाएंगे और मसलने भी नहीं पाएंगे।"
बिट्टिदेव ने डोरा कसते वक्त फूल कहीं गिर न जाए-इस डर से उसे बायें अंगूठे से दबाकर पकड़ा ही था कि तभी उसका कोमल डण्ठल टूट गया। फूल नीचे गिर गया, तो अपने हाथ का डोरा नीचे रख शान्लता 'यों नहीं, यों कहती हुई बिट्टिदेव के हाथों को अपने हाथों से पकड़कर गुंथवाने लगी। तब उसे कुछ ज्यादा ही सटकर बैठना पड़ा। जिससे दोनों को कुछ आह्लादकर आनन्द हुआ। लगा कि ऐसे ही बैठे रहे
और हाथों में हाथ रहें। लेकिन जैसे ही शान्तला को दासब्वे की उपस्थिति का अहसास हुआ तो वह तुरन्त उसका हाथ छोड़कर कुछ सरककर बोली, "अब गुथिए, देखू जरा!"
"एक-दो बार और हाथ पकड़कर गुंथवा दो न!" बिट्टिदेव ने कहा, जैसे उसे वहाँ शान्तला के सिवा दूसरे कोई दिख ही नहीं रहे थे।
"हाँ, अम्माजी, राजकुमारजी का कहना ठीक है।" दासने के सझाव से विदितदेव की कुछ संकोच-सा हुआ। लेकिन शान्तल्ला का संकोच कुछ-कुछ जाता
पट्टमहादेवी शासला :: 391