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कैसे देख सकते हैं। इसलिए आप यह न समझें कि हम आप पर विश्वास नहीं रखते। अच्छा, अब चलूँगी।"
वामशक्ति पण्डित भी उठ खड़ा हुआ उसे विदा करने।
"आज मैं अपने मायके जाना चाहती हूँ। मुहूर्त अच्छा है न?" उसने चलते
चलते पूछा ।
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'आज स्थिर वांसर है। वहाँ कितने दिन तक रहना होगा।"
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"रहना नहीं है। आज ही लौटने की सोची है। बहुत होगा तो एक दिन रहूँगी।" 'जरूरी काम हो तो जाने में कोई हर्ज नहीं। स्थिर वासर को सूर्योदयान्तर आठ घटियों के बाद दोष नहीं रहेगा। आप राहुकाल में यहाँ आर्यों, अब वह खतम हो गया हैं। भोजनोपरान्त जा सकती हैं। आज तेईस घटी तक अश्विनी है। इसी नक्षत्र के रहते आप रवाना हों। अगर किसी अनिवार्य कारण से समय के अन्दर नहीं निकल सकती हों तो सोमवार को जाइएगा।"
"अच्छा, पण्डितजी, मैं चलूंगी।"
वामशक्ति पण्डित के घर जाते समय जो सावधानी, सजग दृष्टि रही, वहाँ से रवाना होते वक्त वह न रह सकी क्योंकि वह पण्डित विदा करने रास्ते तक साथ आया यह कहने पर भी कि मैं चली जाऊँगी, आप रह जाइए, वह साथ आ ही गया । इधरउधर देखे बिना वह पल्ला ही घूंघट-सा सिर पर ओढ़े निकल पड़ी। उसे डर रहा कि कहीं कोई देख न ले, उसका दिल धड़कता ही रहा। घर के अहाते में प्रवेश करते ही उसने पति और अपने भाई के घोड़े देखे तो धड़कन और भी बढ़ गयो ।
वह यह सोचती हुई अन्दर आयी कि भाई को यहीं बुला लाने की बात पहले ही कह देते तो वह घर पर हो रह जाती। लेकिन ये हैं कि कोई भी बात ठीक तरह से बताते ही नहीं। अब क्या करूँ, क्या कहूँ ?
अन्दर कदम रखा ही था कि दडिंग ने कहा, "मालिक ने कहा है कि आते ही आपको उनके कमरे में भेज दें। प्रधानजी भी आये हैं।"
"कितनी देर हुई, क्या पूछा "
"कोई एक-दो घण्टा हुआ होगा। पूछा था, कहाँ गयी हैं ?" "तुमने क्या कहा ?"
"कहा कि मालूम नहीं। "
"क्यों, वसति गयी, कहते तो तुम्हारी जीभ कट जाती ?"
"पता होता तो वहीं कहता, माँ। जो बात मालूम नहीं वह कैसे कहता, बाद में -का-कुछ हो जाए तो?"
कुछ कहे बिना वह सीधी उस कमरे में गयी, हाँफती हुई, पसीना पोंछती हुई बहिन को आते देख गंगराज ने कहा, " आओ चामु, बैठो, पसीने से तर हो, इस धूप
374 पट्टमहादेवी शान्तला
कुछ
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