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चाहिए। इस सन्दर्भ में विष्णु- धर्मोत्तर पुराण का निर्देश विशेष महत्त्व रखता है।"
"मतलब यह हुआ कि कला मौन्दर्योपासना का ही साधन है।" बिट्टिदेव ने अपना निष्कर्ष निकाला।
"सौन्दर्य तो मूलतः है ही, परन्तु एक आदर्श किन्तु मनोहारी प्रतिमा की परिकल्पना सत्य से बाहर नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में धर्म ही सभी शास्त्रों का मूल आधार है, प्रतिमा-निर्माण कला का भी, इसलिए कला में प्रतिबिम्बित होने के लिए धर्म को सत्यपूत होना चाहिए, उसमें सौन्दर्य का भी सम्मिलन होना चाहिए।"
"ऐसी एक प्रतिमा का उदाहरण दे सकते हैं ?" बिट्टिदेव जल्दी से तृप्त होनेवाला न था।
__ "राजकुमार ने बेलुगोल में बाहुबली स्वामी का दर्शन किया होगा?" दासोज ने खूब ही उदाहरण दिया।
"हाँ, किया है।" "वह प्रतिमा वास्तविक मानव से दसगनी ऊँची है, है न?"
"फिर भी वह मूर्ति कहीं भी, किसी दृष्टि से असहज लगती है?" "नहीं, वह सभी दृष्टियों से भव्य लगती है।" "बस, उसकी इसी भव्यता में कला निहित है।"
"उसको मुखाकृति जो एक अबोध बच्चे-सी निर्मल, मनोहर हँस मुख बन पड़ी है उसी में तो कला है। वह मूर्ति यथाजात बालक की भौति दिगम्बर अवस्या की है। परन्तु उसकी नग्नता में असह्यता नहीं, सत्यशुद्धता है, जिससे सिद्ध होता है कि कला सत्यपूत और सुन्दर है।"
"बाहुबली की उस मूर्ति का आकार मानव-प्रमाण होता तो वह और भी अधिक सत्यपूत और सुन्दर न हुई होती? उस ऊंचाई पर बैठकर काम करनेवाला शिल्पी यदि नीचे गिरता तो क्या होता?"
"नहीं, क्योंकि कलाकार का एक अनिवार्य लक्षण निर्भय होना भी है, डरपोक कला की साधना नहीं कर सकता। बाहुबली मानव होने पर भी अतिमानव थे, देवमानव थे, उनके हृदय की भाँति उनका शरीर भी अतिविशाल था। उसी की कल्पना कलाकार की छैनी से इस विशालरूप मृति के रूप में साकार हुई है। वास्तव में कलाकार की कल्पना संकुचित नहीं, विशाल होनी चाहिए, उच्च-स्तरीय होनी चाहिए। हमारे मन्दिर इसी वैशाल्य और औन्नत्य के प्रतीक हैं।"
"इतना विशाल ज्ञान अनिवार्य है एक शिल्पो को?"बिट्टिदेव ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"इसमें चकित होने की क्या बात है?"
382 :: पट्टमहादेवी शान्तला