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मैं उसी के आधार पर एक सुन्दर काव्य लिखूगा। उसे पढ़ने पर इस साढ़ेसाती की विडम्बना आँखों के सामने आएगी और पीछे लगी साढेसाती की भावना दूर हो जाएगी। फुरसत से ही सही, कहिए जरूर, आपके दिल का बोझा भी उतर जाएगा।" कवि बोकिमय्या ने एक प्रस्ताव रखा।
"सही सलाह है।" कवि नागचन्द्र ने समर्थन किया। "हाँ," कहकर रावत मायण ने खाने की ओर ध्यान लगाया।
विट्टिदेव और शान्तला रावत मायण की ओर कुतूहल-भरी नजर से देखते रहे। उस साढ़ेसाती के विषय में जानने की उनकी भी उत्सुकता थी, परन्तु इसके लिए मौका उपयुक्त नहीं था।
सब लोग भोजनानन्तर पान खाने बैठे, तब हेग्गड़ती ने एक रेशमी वस्त्र और हीरा-जड़ी अँगूठी शान्तला के हाथ से जन्मदिन के उपलक्ष्य में बिट्टिदेव को भेंट करायी। एचलदेवी ने रेशमी वस्त्र पर चमकती अंगूठी और शान्तला को सौम्य मुखाकृति बारी-बारी से देखी, बोली कुछ नहीं ।
बिट्टिदेव बोला, "मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता, जो पुरस्कार नहीं ले सकते उन्हें पुरस्कार देने का अधिकार नहीं।"
"मतलब?" शान्तला ने पूछा।
''उस दिन माँ ने पुरस्कार के रूप में जो सोने की माला दी उसे तुमने स्वीकार किया था?"
"उसका कारण था।" "इसका भी कारण है। "इसका मतलब?"
"जिस दिन तुम माँ का वह हार स्वीकार करोगी उस दिन मैं यह अंगूठी स्वीकार करूँगा। ठीक है न, माँ?"
"ठीक कहा, अप्पाजी।"
उधर गले में माला, इधर उँगली में अंगूठी; भगवन् कृपा करो, वह दिन जल्दी आए, इस प्रार्थना के साथ रेविमय्या भावसमाधि में लीन था । युवरानीजी के आदेश से माला लायी गयी तो गंगाचारी ने कहा, “अम्माजी, मैं तुम्हारा गुरु अनुमति देता हूँ, माला स्वीकार करो।"
शान्तला का कण्ठ और स्वाती माला से सुशोभित हुई। बिट्टिदेव की उँगली होरे की अंगूठी से सजी।
पट्टमहादेवी शान्सला :: 399