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"एक तरह से यह ठोक है।" "फिर भी लोग राजघराने में नौकरी करना क्यों चाहते हैं?"
"इसके दो कारण हैं, राजघराने की नौकरी से हैसियत बढ़ती है और जीविका की फिक्र नहीं रहती।"
"मतलब यह कि जीवन-भर निश्चिन्त रूप से खाने-पीने और धन-संग्रह के लिए लोग यह भी करते हैं, है न?"
"हाँ, ऐसा न हो तो वहीं कौन रहना चाहेगा अम्माजी, वहाँ रहना तलवार की धार पर चलना है। किसी से कुछ कहो तो मुश्किल, न कहो तो मुश्किल । राजमहल की नौकरी सहज काम नहीं।"
"यह सत्य है। लेकिन आपकी बात और है, और, वह रेविमय्या भी आप ही के-जैसे हैं। युवरानीजी और युवराज को उसपर पूरा भरोसा है।" ।
__ "ऐसे लोग पोय्सल राज्य में बहुत हैं, ऐसा लगता है। मुझे यहाँ छोड़ जाने के लिए जो नायक आया था उसने मार्ग में मेरी इतनी अच्छी देखभाल की जितनी मेरे पिता भी नहीं कर सकते थे।"
"मैंने यह भी सुना है कि ना अन्य भी अौनरों-चाकरों को अपनी ही सन्तान के समान देखभाल करते हैं।"
"यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ, अम्माजी?"
"हम सब वहाँ गये थे और एक पखवारे से भी अधिक सजमहल में हो रहे थे। तब वहाँ बहुत कुछ देखा था। अच्छा, यह बात रहने दीजिए। आगे क्या हुआ सो बताइए।"
"तुमने सच कहा, धारानगरी में हमारे चक्रवर्ती का घोर अपमान किया गया, किन्तु बदले में हम 'अनागरिक' लोगों ने अपने बन्दीगृह में उसी राजा मुंज के लिए भव्य व्यवस्था की थी। हमारे महाराज ने सोचा कि वे भी मेरे-जैसे मूर्धाभिषिक्त राजा हैं, उनका अपमान राजपद का ही अपमान होगा। कर्नाटक संस्कृति के अनुरूप उन्हें बन्धन के चौखट में भी राज-अतिथियों के-से गौरव के साथ महल में रखा गया। इतना ही नहीं, चक्रवर्ती ने अपनी ही बहन को उस राजबन्दी के आतिथ्य के लिए नियुक्त किया। कन्नड़ साहित्य के उत्तम काव्यों को उसके सामने पढ़वाकर उसे साहित्य से परिचित कराया गया। राजकवि रन्न से उसका परिचय कराया गया। उसे प्रत्यक्ष दिखाया गया कि हमारे कवि कलम ही नहीं, वक्त आने पर धीरता से तलवार भी पकड़ सकते हैं। चालुक्यों की शिल्प-कला का वैभत्र भी उसे दिखाया गया। इस तरह की व्यावहारिक नीति से ही कर्नाटकवासियों ने परमार नरेश मुंज को सिखाया कि एक राजा का दूसरे राजा के प्रति व्यवहार कैसा होना चाहिए और दूसरों को समझे बिना उनकी अवहेलना करके उच्च संस्कृति से भ्रष्ट नहीं होना चाहिए। परन्तु मुंज तो मुंज
पट्टमहादेवी शान्तला :: 184