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ओर कदम बढ़ाये। तब तक सूर्यास्त हो चुका था। अँधेरा छा गया था। गाँव के बाहर एक उजड़ा हुआ मण्डप हैं। वहाँ इमली के पेड़ के नीचे खड़ी हुई ही थी कि उसे किसी के खाँसने की आवाज सुनाई पड़ी। "मुझे कोई अपने घर तक पहुँचाने की कृपा करेगा ?" उसकी आवाज पर ध्यान दिये बिना ही एक व्यक्ति वहाँ से निकला, रुका नहीं। 'आप कौन हैं, बोलते क्यों नहीं ? एक स्त्री भटककर भयभीत हो सहायता की पुकार कर रही हैं और आप मर्द होकर दिलासा तक नहीं दे सकते, घर पहुँचाने की बात तो दूर रही।"
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वह व्यक्ति पास आया, "तुम कौन हो ?"
" आप कौन है इसी गाँव के हैं न?"
"मैं किसी जगह का क्यों न होऊँ उससे तुम्हें क्या मतलब ? तुम्हारा काम चन जाय तो काफी है, है न?"
"इतना उपकार करके मुझपर दया कीजिए। अँधेरे में रास्ता भूल गयी हूँ। मन्दिर की सुन्दरता देखती रह गयी। साथ वाले छूट गये। यह मुझे स्मरण है कि मन्दिर हेगड़े के घर के ही पास है। चलते-चलते लग रहा है कि गाँव से बाहर आ गयी हूँ। अगर आप हेगड़ेजी का घर जानते हों तो मुझे वहाँ तक पहुँचा दीजिए, बड़ी कृपा होगी।" "तुम कौन हो और यहाँ कब आयीं ?"
"कल ही आयी, मैं अपनी भाभी को ले जाने आयी थी।"
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'ओह! तो वह तुम्हारी भाभी है !"
"तो मेरी भाभी को आप जानते हैं ?"
"तुम्हारा भाई बड़ा भाग्यवान हैं, अच्छी सुन्दर स्त्री से उसने शादी की है।"
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"ऐसा है क्या ?"
"तुम्हारी शादी हुई हैं क्या ?"
" हौं ।"
"तुम्हारा पति किस गाँव का है ?"
'कोणदूर गाँव का । "
"तुम अपने पति के घर नहीं गयीं ?"
"नहीं, उसके लिए हमारे यहाँ एक शास्त्र - विधि हैं, वह अभी नहीं हुई।"
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'साथ कौन-कौन आये हैं ?"
"मेरा छोटा भाई और हमारे दो सम्बन्धी। अब यह बताइए हमें किस रास्ते से जाना होगा ?"
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"ऐसे, इस तरफ दस पन्द्रह हाथ की दूरी पर जाने पर वहाँ एक पगडण्डी इससे आकर मिल जाती हैं। वह रास्ता सीधा हेगड़े के घर तक जाता है। चलो, चलें। " कहते हुए उसने कदम आगे बढ़ाया। गालब्बे भी साथ चली।
2.08: पट्टमहादेवी शान्तला