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मानकर उसे युवरानी ने खुद स्वर्ण आभरण और चीनाम्बर देकर पुरस्कृत किया है। यह दण्डनायिका क्या दे सकती है?"
"मतलब यह कि जो गति आपके उस पुरस्कार को हुई वही अब प्रभु के आमन्त्रण पत्र की भी हुई है। यही न?"
"नहीं तो और क्या?"
"ऐसा करेंगे तो प्रभु नहीं क्रुद्ध होंगे, ऐसी उनकी भावना हो सकती है कि नहीं?"
"सन्निधान को फूंक मारकर वश में कर ही लिया है, कोई बहाना करके बच निकलेंगे, ऐसा सोचकर नहीं आये होंगे।"
"समझ लीजिए कि आपका अभिमत मान्याई है, लेकिन वे आते तो उन्हें नुकसान क्या होता? आपके कहे अनुसार, एक बार और फूंक मारने के लिए जो मौका अवाचित ही मिला उसे
घे ते तो क्यों खो बैनते" "ऐसा नहीं है । आते भी तो खाली हाथ नहीं आ सकते । इसके अलावा प्रामीण जनता से भेंट का नजराना भी वसूल कर लाना होता। आमन्त्रण के नाम पर भेंट का जो संग्रह किया होगा उसे भी अपने पास रख सकते हैं। ऐसे कई लाभ सोचकर न आये होंगे।"
"ओफ, ओह । कैसे-कैसे लोग दुनिया में रहते हैं। दण्डनायिकाजी, लोगों की गहराई कितनी है, यह समझना बड़ा कठिन है। हम सफेद पानी को भी दूध समझ लेते हैं। आपका कथन भी ठीक हो सकता है। हमें लगता है कि यह सब सोचकर अपना दिमाग खराब करना ठीक नहीं। कोई आए या न आए। यह शुभ कार्य तो सम्पन्न होना ही चाहिए, है न? अब आप जाइए। अपना काम देखिए। आपसे बात करने पर इतना ज्ञान तो हुआ कि कौन कैसा है, निष्ठा का दिखावा करके धोखा देनेवाले कौन हैं, और वास्तव में निष्ठावान कौन हैं। इस बातचीत के फलस्वरूप एक यह फायदा हुआ कि आगे चलकर लोगों को परखने में इस जानकारी से सहायता मिलेगी। लोग किसने विचित्र व्यवहार करते हैं। दिखावटी व्यवहार करनेवाले ही ज्यादा हैं। परन्तु उन्हें एक बात का स्मरण नहीं रहता। दिखावटीपन को कुचलकर सच्ची बातें भी निकल पड़ती हैं, दण्डनायिकाजी।"
बस, वहीं जाने का आदेश था।
महादण्डनायक मरियाने ने युवराज एरेयंग प्रभु को इस आमन्त्रण-पत्र के सम्बन्ध में विवरण करीब-करीब दण्डनायिका की सलाह के अनुसार दिया, और तात्कालिक रूप से एक सन्तोष का अनुभव किया क्योंकि युवराज की तरफ से कोई प्रतिकूल ध्वनि
320 :: पट्टमहादेवी शान्तला