Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 320
________________ ही प्रमाण काफी नहीं। आमन्त्रण-पत्र नहीं ही मिला है।" "यह कैसे हो सकता है ? हजारों को मिला है तो उन्हें भी मिलना ही चाहिए।" बल्लाल ने कहा। "कुछ मालूम नहीं, भैया । जब हेग्गड़ेजी ने स्वयं कहा कि आमन्त्रण नहीं मिला तो अविश्वास भी कैसे करें?" बिट्टिदेव ने कहा। "तो तुम कहते हो कि दण्डनायक ने झूठ कहा है, यही न?" "मैं तो इतना ही कहता हूँ कि हेग्गड़े की बात पर मुझे विश्वास है।" "हाँ, तुम्हें उस पर विश्वास करना भी चाहिए। इस तरह गुमसुम आकर भागनेवालों पर मेरा तो विश्वास नहीं।" । 'भैया, हमें इस विषय पर चर्चा नहीं करनी चाहिए।" बिट्टिदेव बोला। "क्यों, तुम्हारे दिल में चुभन क्यों हुई?" "यदि मैं कहूँ कि दण्डनायक झूठ बोलते हैं तो तुम्हारे दिल में चुभन नहीं होगी? जिन्हें हम चाहते हैं वे गलती करें तो भी वह गलत नहीं लगता, जिन्हें हम नहीं चाहते वे सत्य बोलें तो वह भी गलत ही लगता है। इसलिए मैं और तुम किसी के भी विषय में अप्रिय बातें करेंगे तो वह न ठीक होगा, न उचित । हेगगड़ेजो का व्यवहार ठीक है या नहीं, इसके निर्णायक माँ और पिताजी हैं। जब वे ही मौन हैं, तब हमारा आपस में चर्चा करना उचित है क्या, सोच, देखो।" बिट्टिदेव ने कहा। "तुम्हारा कहना भी एक तरह से ठीक है। फिर भी, जब अन्दर-ही-अन्दर कशमकश चल रही हो तन भी चुप बैठा रह सकूँ, यह मुझसे नहीं होता।" बल्लाल बोला। "इसका परिहार माँ से हो सकता है। उठिए, चलें देर हो गयी।" बिट्टिदेव घोड़े की तरफ चल पड़ा। तीनों महल पहुंचे। बहुत समय बाद, इस उपनयन के प्रसंग में बल्लाल की पद्यला से भेंट हुई थी। उसमें उम्र के अनुसार आकर्षण, रंग-ढंग, चलना-फिरना आदि सभी बातों में एक नवोनता आयी थी जो बल्लाल को और भी पसन्द आयी। उसके दिल में अब वह अच्छी तरह प्रतिष्ठित हो गयी ! बल्लाल को पहले से ही हेगड़े और उनके परिवार के प्रति एक उदासीन भावना थी। अब वह उदासीनता द्वेष का रूप धारण कर रही थी, पाला की बातों के कारण जो उसने अपनी माँ से सुनकर सत्य समझकर ज्यों-की-त्यों बल्लाल से कही थी। समय पाकर बल्लाल ने अपनी माँ से एकान्त में चर्चा की। हेग्गड़े के बारे में 326 :: पट्टमहादेवी शान्तला

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