Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 350
________________ जैसी निर्मल-हृदय सुमंगली का आशीर्वाद राजकुमार के लिए रक्षा कवच होगा। इसे स्वीकार करें।" बहुत कुछ कहने का मन होने पर भी उस समय बोलना उचित न समयकर हेग्गड़ती ने मंगल-द्रव्य स्वीकार कर लिये। विशेष पूजा-अर्चा आदि कार्यक्रम यथाविधि सम्पन्न हुए। राजकुमार बिट्टिदेव का जन्मोत्सव धूमधाम के बिना ही सम्पन्न हुआ। परन्तु युवरानी ने पुजारियों को आदेश दिया कि वे पूजा के समय प्रभु की विजय और राजघराने के श्रेय के साथ ही हेग्गड़े परिवार के श्रेय के लिए भी भगवान से प्रार्थना करें, साथ ही, तीर्थ-प्रसाद राजकुमार को देने के बाद शान्तला को भी दें। पूजा के समय रेविमय्या की खुशी की सीमा नहीं थी। उसके हृदय के कोने-कोने में शान्तला-बिट्टिदेव की आकृतियाँ साकार हो उठी थीं, प्रत्यक्ष दिख रही थीं। दूसरे दिन भोजन के समय मारसिंगय्या, माचिकब्बे, शान्तला, बिट्टिदेव, उदयादित्य और युवरानी तथा मायण, नागचन्द्र, बोकिमय्या और गााचारी आमनेसामने दो कतारों में इसी क्रम से बैठे थे। सिंगिमय्या की पत्नी सिरिया देवी उस दिन के किसी समारम्भ में भाग न ले सकी। भोजन समाप्ति पर पहुँचनेवाला था, तब मौन तोड़कर युवरानी एचलदेवी ने अध्यापकों को सम्बोधित कर कहा, "आप लोग महामेधावी पुरुष हैं। अब तक इन बच्चों को ज्ञानवान बनाने में आप लोगों ने बहुत परिश्रम किया है। उन्होंने अब तक जो सीखा है वह काल-प्रमाण की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए राज-परिवार आपका कृतज्ञ है। ज्ञानार्जन से मानवता की भावना का विकास हो और अर्जित ज्ञान का कार्यान्वयन सही दिशा में हो और उसका योग्य विनियोग भी हो। उस स्तर तक ये बच्चे अभी नहीं पहुंच सके हैं तो भी विशेष चिन्सा नहीं। परन्तु मेरी विनती है कि आप उन्हें ऐसी शिक्षा दें कि वे विवेकी बनें, मानव की हित-साधना में योग दे सकें और सांस्कृतिक चेतना से उनका मानसिक विकास हो। इस विनती का अर्थ यह नहीं कि अभी आप ऐसो शिक्षा नहीं दे रहे हैं। आपके प्रयत्नों से हमारी आकांक्षाएँ कार्यान्वित होकर फल-प्रद होंगी, यह हमारा विश्वास है। फिर भी मातृ-सहज अभिलाषा के कारण हमारा कथन अस्वाभाविक नहीं, अतएव यह निवेदन किया है। इसमें कोई गलती नहीं है न?" इस आत्मीयतापूर्ण अनुरोध की स्वीकृति में कवि नागचन्द्र सविस्तार बोले, "विद्या का लक्ष्य ही मनुष्य को सुसंस्कृत बनाना है, इसलिए सन्निधान की आकांक्षा बहुत ही उचित है। तैत्तिरीय उपनिषद् में एक उक्ति है, अथ यदि ते कर्म-विचिकित्सा या वृत्त-विचिकित्सा वा स्यात् ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनी, युक्ता, आयुक्ता, अलूक्षा, 357 :: पट्टमहादेवी शान्तना

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