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"अपनी सहूलियत के अनुसार कोजिए।"
वह सारा दिन कुशल-प्रश्न, मेल-मिलाप में ही बीता। बढ़ी हुई शान्तला को देखकर युवरानीजी बहुत खुश हुई। उनका हृदय मस्तिष्क को कुछ और ही सुझाव दे रहा था।
शान्तला और विष्ट्रिदेव स्वभावतः बड़े आत्मीय भाव से मिले। रेविमय्या और बूतुग में बहुत जल्दी मैत्री हो गयी। बोम्मले और दासब्जे में भी घना स्नेह हो गया।
शान्तला का संगीत और नृत्य के शिक्षण का स्थान पर ही रहा, परन्तु साहित्य, व्याकरण, गणित आदि का पाठ-प्रवचन युवरानीजी के निवास पर चलने लगा। क्योंकि कवि नागचन्द्र के सम्मिलित गुरुत्य में शान्तला, बिट्टिदेव और उदयादित्य के ज्ञानार्जन की प्रक्रिया चल रही थी। इन दोनों कवियों में ऐसी आत्मीयता बढी कि उसे महाकवि रन्न देखते तो शायद यह न लिखते : 'वाक् श्रेयुतनोल अमस्तरत्व आगहुँ ।' अर्थात् वाक्श्रीयुत् जो होता है उसमें मात्सर्य रहेगा ही। महाकवि रन्न की यह उक्ति शायद स्वानुभूति से निकली थी। चुड़िहारों के घराने में जन्म लेकर कोमल स्त्रियों के नरम हाथों में आड़ी हड्डी के अड़े होने पर भी बड़ी होशियारी से दर्द के बिना चूड़ियाँ पहनाने में कुशल होने पर भी जो वह कार्य छोड़कर अपने काव्य-कौशल के बल पर वाक्-श्रीयुत् कवियों से स्पर्धा में जा कूदा और स्वयं वाक्-श्रीयुतों के मात्सर्य का विषय बन गया हो, ऐसे धुरन्धर महाकवि की बह उक्ति स्वानुभूतिजन्य ही होनी चाहिए।
नागचन्द्र और बोकिमय्या कभी-कभी शिष्यों की उपस्थिति को ही भूलकर बड़े जोरों से साहित्यिक चर्चा में लग जाया करते यद्यपि इस चर्चा का कुछ लाभ शिष्यों को भी मिल जाता। किसी भी तरह के कड़वापन के बिना विमर्श कैसा होना चाहिए, यह बात इन दोनों की चर्चा से विदित हुई शिष्यों को।
इस सिलसिले में मत-मतान्तर और धर्म-पन्धों के विषय में भी चर्चा हुआ करती। इस चर्चा से शिष्यों को परोक्ष रूप से शिक्षा मित्नी । वैदिक धर्म ने समय-समय पर आवश्यक बाह्य तत्त्वों को आत्मसात् करके अपने मूल रूप को हानि पहुँचाये बिना नवीन रूप धारण किया, लेकिन गौतम बुद्ध ने घोर विरोध किया और उनका धर्म सारे भारत में अड़ जमाकर भी दो भागों में विभक्त हो कान्तिहीन हो रहा था जबकि उन्हीं दिनों जैन धर्म वास्तव में प्रवृद्ध होकर सम्पन्न स्थिति में था। कालान्तर में वैदिक धर्म विशिष्टाद्वैत के नाम से नये रूप में विकसित होकर तमिल प्रदेश में श्री वैष्णव पन्थ के नाम से प्रचारित हुआ जिसका तत्कालीन शैव चोल-वंशीय राजाओं ने घोर विरोध किया। यह विरोध भगवान के शिव और विष्णु रूपों की कल्पना से उत्पन्न झगड़ा था।
334 :: पट्टमहादेवी शाज़ला