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से एक विशेष शोभा आयी थी। बलिपुर में तारा भगवती की प्रतिष्ठा करनेवाली महान सहवासी वाप्पुरे नागियक्का अभी जीवित थी जो बहुत वृद्धा होने पर भी पोय्सल युवरानी की उपस्थिति के कारण विहार से बाहर निकलकर इस उत्सव में भाग लेने आयी। करुणा की साकार मूर्ति की तरह लगने वाली इस महासहवासी वृद्धा नागियक्का को देखकर युवरानी एचलदेवी उसके प्रति आदर से अभिभूत हो उठी जबकि प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों की तरह जटा बाँधे उस वृद्धा को देखकर बिट्टिदेव आश्चर्यचकित हुआ। उन्होंने युवरानी को विहार-दर्शन के लिए आमन्त्रित किया। तदनुसार रथोत्सव के बाद एक दिन वे वहाँ गयौं। उनके साथ हेग्गड़ती माचिकब्बे, दोनों राजकुमार, शान्तला, गुरु नागचन्द्र और बोकिमय्या भी गये। यह कहने की जरूरत नहीं कि रेविमय्या भी उनके साथ था।
नागचन्द्र और बोकिमय्या यहाँ महासहवासी नागियक्का के साथ भी किसी विषय पर चर्चा करेंगे, इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे विट्टिदेव और शान्तला जिनमें पनपते सहज सम्बन्ध युवरानी को दृष्टि में थे। इन सम्बन्धों और उदयादित्य-शान्तला सम्बन्धों में जो अन्तर था वह प्रगाढ़ता की दृष्टि से कम और प्रकृति की दृष्टि से अधिक था। सबने इस महासहवासी का दशान कर उस साष्टांग प्रभाम किया। उनके आदेशानुसार सभी बिहार के प्राध्यापक बुद्धरक्खित के साथ विहार-दर्शन करने गये जो ध्यान, अध्ययन, निवास आदि की दृष्टि से अत्यन्त उपयुक्त, विशाल और कलापूर्ण था।
बुद्धरक्खित ने इस विहार के निर्माण और कला पर तो प्रकाश डाला ही, वौस धर्म के प्रवर्तन, विकास, विभाजन, उत्थान पतन, स्वागत-विरोध आदि पर भी सविस्तार किन्तु रोचक चर्चा की। उन्होंने बताया कि लोगों को बौद्धानुयायियों की संख्या बढ़ाने और प्रजाक्षेम को अधिकाधिक आश्रय देने के इरादे से महायान का विकास हुआ जिसमें हिन्दू देवताओं के रूप और शक्तियाँ भी समन्वित हुईं। इसीलिए उसमें बुद्ध तो है ही, केशव है, अवलोकितेश्वर है, और पाप-निवारक देवी भगवती तारा भी है। यह भगवती तारा बोधिसत्त्व अवलोकेश्वर को प्रतिबिम्बित करनेवाला स्त्री रूप है। महायान पन्थ में इस भगवती तारा का विशेष स्थान है क्योंकि वह दुष्ट पुरुष को क्षमा करके उसे गलत रास्ते में जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाने तथा मोक्षसाधन के ऋजुमार्ग में प्रवर्तित करने का काम करती है। वह संसार को निगलनेवाली रक्त-पिपासु चण्डी नहीं, भद्रकाली या चामुण्ड्य नहीं, वह क्षमाशीला, प्रेममयी, साध्वी, पापहारिणी पावन-मूर्ति हैं। बुद्धरक्खित की बातें सुनते-सुनते वे लोग सचमुच तारा भगवती की मूर्ति के सामने पहुंचे। दर्शकों की एकाग्र दृष्टि मूर्ति पर लग गयी, ऐसा आकर्षण था उस मूर्ति में।
लक्ष्म्युपनिषत् में वर्णित लक्ष्मी की तरह यह देवी-मूर्ति कमलासन पर स्थित है। उसका दायाँ पाँव नीचे लटक रहा है, बायाँ अद्ध-पद्मासन के ढंग पर मुड़ा हुआ दार्यो जंघा पर तथा दायाँ पाद धर्मः- चक्र पर स्थित है। वह कीमती वस्त्र धारण किये है।
१.6 :: पट्टमहादेवी शान्तला