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"इसे बनानेवाले शिल्पी रामोज थे, हमारे गुरु दासोजजी के पिता।" "तो बलिपुर शिल्पियों का जन्मस्थान है क्या?" "केवल बलिपुर नहीं, कर्णाटक ही शिल्पियों का आकर है।" "यह तुमें कैसे मालूम?"
"मुझे गुरु ने बताया है। कर्णाटक के किस कोने में कौन-कौन चतुर शिल्पी हैं, यह सब वे जानते हैं।"
"क्या तुमने रामोजजी को देखा है?" "हाँ, देखा था। उन्हें सायुज्य प्राप्त किये अभी एक साल ही हुआ है।" "इस मूर्ति को गढ़नेवाले भो वे ही थे?" "यह मैं नहीं जानती।" "दासोजजी को शायद मालूम होगा।" "हो सकता है, चाहें तो पूछ लेंगे।"
"तुमने बताया कि इस विहार में दण्डनायक रूपभट्टय्या ने केशव, लोकेश्वर और बुद्ध की प्रतिमाएं स्थापित की। भगवती तारा की स्थापना उन्होंने नहीं की?"
"न। इसकी स्थापना योगिनी नागियक्का ने की है।" "क्या कहा, उस वृद्धा ने? उस निर्धन वृद्धा से यह सब कैसे सम्भव है!''
"अब निर्धन लगें, लेकिन तब वे महादानी बाप्पुरे नागियक्का जी थीं, एक महानुभावा, सब कुछ त्यागकर आत्म-साक्षात्कार करनेवाली महान साध्वीमणि। यह वंश आदि पाहाबापुर के नाम से प्रसिद्ध है। इन्हीं के वंशोत्पन्न ध्रुव इन्द्रवर्मा चालुक्य राज्य के एक भाग के राज्यपाल बनकर राज्य करते थे। सत्याश्रय रणविक्रम के नाम से प्रसिद्ध चालुक्य प्रथम पुलिकेशी की पत्नी दुर्लभादेवी इसी वंश की पुत्री कही जाती हैं। नागियक्काजी और उसके पतिदेव हम्पशेट्टीजी ने अपना सर्वस्व इस विहार के निर्माण में खर्च कर अन्त तक अपना शरीर-श्रम भी देकर अपने को इसी में धुना दिया। दे महानुभाव हेग्गड़े बनकर बलिपुर में भी रहे, यह कहा जाता हैं।"
"तुमने उन्हें देखा था?"
"नहीं, मेरे जन्म के कई वर्ष पहले ही उन्होंने सायुज्य प्राप्त कर लिया था। अच्छा अब, चलें, युवरानीजी हमारी प्रतीक्षा करती होंगी।" ।
"चलो।" दोनों चलने को हए कि रेविमय्या को देखकर रुक गये जो हाथ जोडे आँख मूंदकर तारा भगवती के सामने एक खम्भे से सटकर खड़ा मानो ज्ञान-समाधि में लीन था। उसका ध्यान भंग न करने की इच्छा से दोनों दो-चार क्षण प्रतीक्षा करते रहे।
"वह आ जाएगा, चलो।" कहते हुए बिट्टिदेव ने शान्तला को भुजा पर हाथ रखा और चल पड़ा । शान्तला थोड़ी झुककर कुछ दृर सरककर आगे बढ़ी। बिट्टिदेव
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द्रबहान जान्नन्तः