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महादण्डनायक को देखते ही प्रधान गंगराज ने कहा, "आइए, बैठिए। आप आये, अच्छा हुआ। मैं खुद ही आना चाहता था।"
"कोई जरूरी काम था?" कहते हुए मरियाने बैठे। "हाँ, महाराज हम दोनों से मिलना चाहते हैं।" "क्या बात है?"
"कुछ मालूम नहीं। दोनों को तुरन्त उपस्थित होने का आदेश है। आपके आने का कोई कारण होगा?"
"कोई विशेष कारण नहीं, यों ही चला आया।" उसे अपनी बात प्रकट करने का वह समय उपयुक्त नहीं जंचा।
___ "अच्छा, बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसी चल रही है। साहित्य, व्याकरण आदि पहाने के लिए नियमा भारती नीट हानी है न ?"
___ "इस सम्बन्ध में मैं ज्यादा माथापच्ची नहीं करता। चाहें तो पत्ता लगाकर बता दूंगा। आपकी बहिन ने कोई शिकायत नहीं की, इसलिए मैं समझता हूँ कि सब ठीक ही चल रहा है। महाराज से कब मिलना है?"
"अभी-अभी दो क्षण में, मैं राजदर्शनोचित पोशाक पहनकर तैयार होता हूँ।" कहकर गंगराज अन्दर गये।
मरियाने सोचने लगा कि दोनों को एक-साथ मिलने का आदेश दिया है, इससे लगता है कि काम महत्त्वपूर्ण होगा और कुछ रहस्यपूर्ण भी। जब कभी किसी विषय पर विचार करना पड़ता है सब महाराज पहले से ही सूचित करते हैं, इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। दोनों घोड़ों पर सवार हो राजमहल की तरफ चल पड़े।
इधर चामब्वे ने चारों सर्वतोभद्र यन्त्र पेटीनुमा तमगों में बन्द कर भगवान की मूर्ति के पास रखकर उनपर दो लाल फूल चढ़ाये, प्रणाम किया और प्रार्थना की, "मेरी आकांक्षा सफल बनाओ, वामशक्ति से मैंने जो बात की है उसे प्रकट न करने की प्रेरणा दो उसे।"
भोजन के बाद शान्तला घर लौटी। राजकुमार के जन्मदिन की और इस अवसर पर युवरानीजी ने शान्तला से जो वादा करा लिया था, उसकी सूचना हेग्गड़ती को सिंगिमय्या से मिल चुकी थी।
स्पर्धा की बात सुनकर माचिकब्बे ने कहा, "ऐसा कहीं होता है ? तम्हें ऐसी आतों को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए । वे राजा हैं और हम प्रजा। अभी तो वे बच्चे हैं.
पट्टमहादेवी शान्ताना :: 5.3