Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 1
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 329
________________ यह वह समय था जब आदि शंकर के अद्वैत ने बौद्ध मत को कुछ ढीला कर दिया था। किन्तु उन्हीं के द्वारा पुनरुज्जीवित वैदिक धर्म ने फिर से अपना प्रभाव कुछ हद तक खो दिया था। शैव सम्प्रदाय के कालमुख काश्मीर से कन्याकुमारी तक अपना प्रसार करते हुए यत्र-तत्र विभिन्न मठों की स्थापना कर रहे थे। बलिपुर के पास के तावरेकरे में भी उन्होंने एक मठ की स्थापना की जो कोडीमठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विश्व-कल्याण की साधना तभी हो सकती है जब मानव में ऊँच-नीच की भावना और स्त्री-पुरुष का भेद मिटाकर 'सर्व शिवमयं' को उद्देश्य बनाया जाए, और इसी उद्देश्य के साथ वीर-शैव मत भी अंकुरित हो बढ़ रहा था। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, बौद्ध, जैन कालमुख, वीरशैव आदि भिन्न-भिन्न मार्गों में चल रहे सहयोग-असहयोग पर दोनों चर्चा करने लगते तो उन्हें समय का भी पता न चलता। वे केवल ज्ञान-पिपासु थे, उनमें संकुचित भावना थी ही नहीं। वे इन मतमतान्तरों के बारे में अच्छी जानकारी रखते थे, इससे उनकी इस चर्चा का शिष्यों पर भी अच्छा परिणाम होता था। धर्म की नींव पर सहृदयता, शोध और विचार-विनिमय के बहाने दोनों गुरु शिष्यों की चित्तवृत्ति परिष्कृत और पक्व किया करते । साहित्यिक चर्चा में तो शिष्य भी भाग लिया करते, कई बार युवरानी एचलदेवी भी यह चर्चा सुना करतीं। बलिपुर में धार्मिक दृष्टि का एक तरह का अपूर्व समन्वय था। श्रीवैष्णव मत का प्रभाव अभी वहाँ तक नहीं पहुंचा था। एक समय था जब वहाँ बौद्धों का अधिक प्रभाव रहा। इसीलिए वहाँ भगवती तारा का मन्दिर था। बौद्धों के दर्शनीय चार पवित्र क्षेत्रों में उन दिनों बलिपुर भी एक माना जाता था। बौद्ध धर्म के क्षीण दशा को प्राप्त होने पर भी उस समय बलिपुर में बौद्ध लोग काफी संख्या में रहते थे। गौतम बुद्ध की प्रथम उपदेश-वाणी के कारण सारनाथ की जो प्रसिद्धि उत्तर में थी वही प्रसिद्धि बलिपुर की दक्षिण में थी, उन दिनों बलिपुर बौद्धों का सारनाथ बन गया था। इस बौद्ध तीर्थ-स्थान का जयन्ती-बौद्ध विहार धर्म और ज्ञान के प्रसार का केन्द्र माना जाता था। दूसरी ओर, जगदेकमलेश्वर मन्दिर, ओंकारेश्वर मन्दिर, नीलकण्ठेश्वर मन्दिर, केदारेश्वर मन्दिर, शैवों और वीरशैवों के प्रभाव के प्रतीक थे। उत्तर-पश्चिम में सीता-होंडा के नाम से प्रसिद्ध जलावृत भूभाग में वहाँ जलशयन-देव नामक वैष्णव मन्दिर था। वहीं जैन धर्म के प्रभाव की सूचक एक ऐतिहासिक वसत्ति भी थी जिसका अर्थ ही जैन मन्दिर होता है। भगवती तारा का रथोत्सव धूमधाम के साथ सम्पन्न हुआ। भारत के नाना भागों से बौद्ध भिक्ख और सहवासी बलिपुर आये। किसी भेदभाव के बिना अन्य सभी मतावलम्बियों ने भी उसमें भाग लिया । हेग्गड़े मारसिंगय्या के नेतृत्व में उत्साह और वैभव तो इस उत्सव में होना ही था, पोय्सल युवरानी और राजकुमारों के उपस्थित रहने पट्टमहादेवी शन्तला :: 335

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