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उसने जो सुना था वह विस्तार से सुनाया। सुनाने के ढंग से उसका उद्वेग स्पष्ट दिखता था किन्तु माँ एचलदेवी ने वह सब शान्त भाव से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना सुना ।
के विचार सुनने को बेटा उत्सुक था। वे बोलीं, "अप्पाजी, तुम्हारा झूठ का यह पुलिन्दा पूरा हो तो एकबारगी ही अपना अभिमत सुनाऊँगी।"
"माँ । यह सब झूठ है ?"
'हाँ।"
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'तो क्या पद्यला ने मुझसे झूठ कहा ?"
"हाँ, यद्यपि यह हो सकता है कि उसको यह जानकारी नहीं हो कि वह जो बोल रही है वह झूठ है।"
"तो, माँ, उसे जो कुछ बताया गया है वह सब झूठ है ?"
"अप्पाजी, तुमको माँ-बाप पर विश्वास है न?"
"यह क्या, माँ, ऐसा सवाल क्यों करती हो ?"
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'जब मैं यह कहती हूँ कि तुमने जो बताया वह झूठ हैं तब तुम यह सोचते हो कि मैं निराधार ही कह रही हूँ। तुम्हारा मन अभी कोमल है, अनुभवहीन है। पद्मला
तुम्हारा मन जीत लिया है, इसीलिए वह जो भी कहती है उसे तुम सत्य मान लेते हो। पर इसी से, मैं तो असत्य को सत्य नहीं मान लूँगी। तुम्हें मुझपर विश्वास हो तो मैं एक बात कहूँगी, कान खोलकर सुनो। मैं किसी का मन दुखाना नहीं चाहती क्योंकि उससे व्यथा और व्यथा से द्वेष की भावना पैदा होती है जिससे राज्य की हानि होती है । इसीलिए जो कुछ गुजरा है उसे सप्रमाण जानने पर भी हमने उस सम्बन्ध में कहीं कभी किसी से कुछ भी न कहने का निर्णय किया है। इसीलिए तुमसे भी नहीं कहना चाहती, केवल इतना कहूँगी कि तुमने जो कुछ सुना है वह हेग्गड़ेजी ने नहीं क्रिया हैं। वे कभी ऐसा करनेवाले नहीं हैं, उनकी निष्ठा अचल हैं, यह सप्रमाण सिद्ध हो
चुका है। तुम्हें भी उनके विषय में अपनी भावनाओं को बदल देना चाहिए। कल तुम सिंहासन पर बैठनेवाले हो । ऐसे लोगों की निष्ठा तुम्हारे लिए रक्षा कवच है। तुम त्रिश्वास ही न करो तो उनकी निष्ठा तुम्हें कैसे मिलेगी। उनकी निष्ठा चाहिए हो तो तुम्हें भी उनके साथ आत्मीयता की भावना बढ़ानी होगी, समझे।"
" अभी मेरे मन में जो भावना बसी है उसे दूर करने को स्पष्ट प्रमाण की जरूरत हैं. माँ, नहीं तो...'
„
बीच में ही एचलदेव बोल उठीं, " अप्पाजी, जिस भावना को दूर करने के लिए तुम गवाही चाहते हो उसे मन में स्थायी बनाये रखने के लिए किसकी गवाही पायी थी ? केवल सुनी बात और कहनेवालों पर विश्वास ही न ? उसी तरह यदि मेरी बातों पर तुमको विश्वास हो तो वह भावना दूर करो। साक्ष्य की खोज में मत जाओ।"
पट्टमहादेवी शान्तला : 327