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दिये बिना चला भी गया तो वह भौचक्का-सा रह गया। उसे लग रहा था कि अगर उसके और बिट्टिदेव के बीच सुबह यह बात न हुई होती तो अच्छा रहता। उसमें एक तरह की झुंझलाहट पैदा हो गयी थी।
युवराज, युवरानी और नूतन षटु से मिलकर मारसिंगय्या ने अन्त:पुर में हो भोजन किया और युवराज के साथ महाराज का दर्शन कर बलिपर चला गया !
हेग्गड़े और उसके साथ जो नौकर और रक्षक दल आये थे। उन सबको दोरसमुद्र की पूर्वी सीमा तक पहुँचा आने के लिए रेविमय्या गया जिसमें एक नया उत्साह झलक रहा था। राजा के अतिथि भी अपनी-अपनी सहूलियत के अनुसार चले गये। उपनयन के बाद एक शुभ दिन घसन्त-माधव-पूजा समाप्त कर महाराज से आज्ञा लेकर युवराज और युवरानी बच्चों के साथ वेलापुरी चले गये।
अब तक पद्मला को ऐसा भान हो रहा था कि वह किसी एक नवीन लोक में विचर रही है। बल्लाल को भी यह परिवर्तन अच्छा लग रहा था। चामला और बिद्रिदेव को पहले की तरह मिलने-जुलने का विशेष मौका नहीं मिला था तो भी पहले के परिचय से जो सहज वात्सल्य पैदा हुआ था वह ज्यों-का-त्यों बना रहा।
उपनयन के उत्सव के समय की गयी सारी सुन्दर व्यवस्था के लिए महादण्डनायक मरियाने और चामव्चे को विशेष रूप से वस्त्रों का उपहार राजमहल की तरफ से दिया गया । उनको तीनों बच्चियों के लिए वस्त्राभूषण का पुरस्कार दिया गया। चिण्णम दण्डनायक और चाँदला आये थे मगर वे केवल अतिथि बनकर रहे। युवराज के आदेशानुसार उनके साथ वे भी वेलापुरी लौटे।
इतने में समय साधकर चामव्वे ने कन्नि नागचन्द्र को अपने यहाँ बुलाकर अपनी बच्चियों की शिक्षा-दीक्षा और उनके गुरु का भी परिचय कराया । चामन्चे ने इतना सब जो किया उसका उद्देश्य नागचन्द्र को मालूम हो या नहीं, इतना स्पष्ट था कि कोई उद्देश्य था, वह यह कि अपनी लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा और उनकी प्रगति आदि की प्रशंसा वह युवराज, युवरानी और राजकुमारों के कानों तक पहुँचा दे।
बलिपुर के हेगड़े के इस तरह आने और उनसे मिले बिना चले जाने से कुछ हैरानी हुई वरन् यह दम्पती सभी तरह से खुश था। उसे लग रहा था कि वह अपने लक्ष्य की ओर एक कदम आगे बढ़ा है, यद्यपि हुआ इसके विपरीत ही था, जिस सचाई को युवराज और युवरानी ने समझने का मौका ही नहीं दिया।
वेलापुरी पहुँचने के बाद एक दिन शाम को बल्लाल और चिट्टिदेव युद्ध-शिक्षण शिविर
पट्टमहादेवी शान्तला :: 323