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अनिरीक्षित ही चल निकलीं जिससे एक आत्मीयता का वातावरण पैदा हो गया था। बड़ों के इस वायुद्ध को छोटे सब कुतूहल से सुन रहे थे। __हेगड़े मारसिंगय्या ने हेगड़ती की ओर कनखियों से देखा। वह मुसकरायी। बात चल ही रही थी।
"हाँ, यह दण्डनायक का वंश हरिश्चन्द्र की सन्तति है न?" चामध्ये बोली। "यह मेरी-तेरी बात है, वंश की बात क्यों?"
"मेरी- आपकी बात होती तो आप सारी स्त्रियों पर आक्षेप क्यों करते कि सत्य कहने पर स्त्रियों को आश्चर्य होता है। आप ही कहिए, हेग्गड़तीजी।"
"ऐसी सब बातें आपसी विश्वास पर अवलम्बित हैं। एक तरफ अविश्वास उत्पन्न हो जाए तो सत्य भी आश्चर्यजनक हो सकता है।"
"तो आपकी राय किस तरफ है?" फिर प्रश्न किया चामव्वा ने।
"मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रही हूँ। मैंने तो तत्व की बात कही है। यदि मैं अपनी बात कहूँ तो मेरे स्वामी मुझसे कभी झूठ नहीं बोलते, यह मेरा विश्वास है। इसलिए आश्चर्य का प्रश्न ही नहीं उठता।"
"सना, हेगड़तीजी भी तो स्त्री ही हैं न । सत्य कहने पर उन्हें आश्चर्य नहीं होता। वे खुद कह रही हैं। इसलिए सब स्त्रियों को एक साथ मिलाकर पत बोलिए।"
"हाँ, वहीं हो। चामच्या को हेग्गड़तीजी की टोली में शामिल नहीं करेंगे। ठीक है ?" दण्डनायक ने कहा।
"वह सिरजनहार ब्रह्मा खुद एक न बना सका तो यह दण्डनायकजी से कैसे सम्भव होगा।"
"अच्छा कहा, मानो उस ब्रह्मा को खुद देख आयो हो, बात करने में क्या रखा है।' मरियाने दण्डनायक ने व्यंग्य किया।
"मैंने यह तो नहीं कहा कि मैंने ब्रह्मा को देखा है।" चामब्वे ने कहा।
बात कुछ बिगड़ती देखकर हेग्गड़ेजी नै बात का रुख बदलते हुए कहा, "दण्डनायिकाजी, आपने ये जो मण्डक बनवाये हैं वे इतने बड़े हैं जितना बड़ा आपका मन है। उसे देखते ही मुँह से लार टपकने लगती है। आपकी रुचि तो कल्पना से ही बाहर है। उसे इस ढंग से तैयार करना हो तो उसकी पूर्व-तैयारी कितनी होनी चाहिए। गूंथना, उसकी लोई बनाना, आग सिलगाना, कड़ाही चढ़ाना, लोई को पाटी पर बेलना, उसे कड़ाही में फेराकर पकाना। इतने परिश्रम और साधना से जैसे मण्डक का स्वाद ले सकते हैं वैसे ही तप से तपकर साधना द्वारा मन को तैयार करें तो ब्रह्मा का दर्शन भी हो सकता है। इसे असाध्य क्यों समझती हैं ? साधना करके दिखा दीजिए। तब देखें, दण्डनायकजी क्या कहते हैं।" मारसिंगय्या ने कहा। ___ "हाँ, हाँ, इन अकेले का मन तृप्त करने के लिए इतना सारा परिश्रम क्यों, ब्रह्मा
278 :: पट्टमहादेवी शान्तला