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गरजने लगी उससे वह धीरज खो बैठी।"
"आप तो उसे धीरज बधाइए।"
"क्या कहकर धीरज बंधाऊँ? मैं एक बार वेलापुरी हो आने की सोच रहा हूँ। यों तो हमारे कवि भी वहाँ हैं।"
"ठीक । जो मन में आया उसे लिख कवि कहलानेवाले का क्या ठिकाना और क्या नीति? ऐसे लोग गिरगिट की तरह रंग बदलनेवाले और जिस पत्तल में खाया उसी में छेद करनेवाले होते हैं। जहाँ मानदेय मिले वहीं उनकी नजर लगी रहती है। क्या उसने युवराज के इस तरह जाने की बात पहले कही थी?"
"उससे बात नहीं हो सकती थी। बेचारा, उसकी कैसी स्थिति रही होगी. कौन जाने? इसलिए जब तक बेलापुरी हो न आऊँ तब तक मन को शान्ति नहीं मिलेगी।"
"किसी बात का निर्णय भाई से विचार-विनिमय करके ही करें।" "सलाह दी, भाग्य की बात है। वही करूँगा।" "पद्मला की बात उठी तो एक बात और इसके बारे में कहनी है।" "क्या?"
"हमें उसे महारानी बनने के योग्य शिक्षित करना चाहिए, यह आपके होनेवालं दामाद की इच्छा है। इसलिए किसी को..."
"पहले सगाई तो हो, फिर देखेंगे।"
"आप ही ने कहा था कि यदि मैं शिक्षित होती तो अच्छी सलाह मिल सकती थी। जो शिक्षण मुझे नहीं मिल सका वह कम-से-कम आपकी बच्चियों को मिला जाए। इतनी व्यवस्था तो हो! पता नहीं उनकी शादी किससे हो, यह तो जिननाथ के हाथ में है। एक बात यह कि दूसरी के साथ गाँठ न बाँधे।"
"इस बारे में भी तुम्हारे भाई से सलाह लँगा। ठीक है न?"
पति-पत्नी में जो चर्चा हुई उसके अनुसार प्रधान गंगराज से विचार-विनिमय हुआ। बच्चों के शिक्षण की उन्होंने भी स्वीकृति दी। उनकी स्वीकृति से यह आभास भी नहीं मिला कि वे राजकुमार की बात को कितना मूल्य दे सके हैं। अभी से इस सम्बन्ध में वे कुछ कहना नहीं चाहते थे, अभी हालात कुछ गंदले हैं, कुछ छन जाएँ। अभी कुछ कहें तो उसका अर्थ बुरा भी हो सकता है। इसलिए वेलापुरी जाना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। समय की प्रतीक्षा कर योग्य अवसर मिलने पर इस विवाह के सम्बन्ध में ठीक-ठोक स्थिति जानने का काम करेंगे। बच्चों के स्थानान्तर से इसका कोई सम्बन्ध नहीं, किस-किसको कहाँ-कहाँ रखना अच्छा होगा, इस दृष्टि से ही इन बातों पर विचार करना होगा, यह मैंने स्वयं युवराज को बताया था। परन्तु मैंने यह नहीं सोचा था कि वे इस पर अभी अमल कर डालेंगे। माचण के स्थानान्तर की जल्दी नहीं थी। परन्तु डाकरस को अपने पास बुला लेने का उद्देश्य राजकुमारों के शिक्षण की
पट्टमहादेवी शान्ता :: 249