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हुआ है।"
"वही कहने को आपको यहां बुलाया है। आपको तो मेरे मन का अच्छा ''यह मेरा सौभाग्य है । युवरानाबा के हृदय का शुद्धता का पारचय किसे नहा
भारी
है.'
है?"
"यदि सचमुच ऐसा है तो लोग मुझे दुःखी क्यों करते हैं।"
"ऐसा किसने किया, यह मालूम होने पर उसे सही ढंग से सीख दी जा सकती है। वास्तव में हुआ क्या है, सो मुझे मालूम नहीं, बात की जानकारी हो तो...।"
"कहूँगी। सबसे गलती होती है। उसी को मन में रखकर दुःख का अनुभव करते रहना मेरा स्वभाव नहीं । क्षमा करें। ऐसी बातों को भूलना ही मेरा स्वभाव है। मेरे स्पष्ट वचन सुनकर आपको व्यथित नहीं होना चाहिए। आपने हमारे अप्पाजी के उपनयन के सन्दर्भ में बलिपुर की हेगड़ती के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था, परन्तु मैंने उसे भुला दिया था। आपने उन्हें न्यौता देकर बड़े वात्सल्य से विदा किया, अच्छा हुआ। आन्त्रितों की सूची में उनका नाम छूट गया था, आपने स्मरण दिलाया, यह खबर मिला, तब मुझे बहुत खुश हुई। राज्य संचालन-सूत्र से सम्बन्धित सभी लोगों में भाईचारा रहे, इसकी आपने गवाही दी। परन्तु ऐसा प्रतीत फिर भी होता है कि आपके मन में कुछ चुभन है कि युवरानी को बलिपुरवालों पर विशेष ममता है।"
"मैं तो ऐसा नहीं समझती।"
"अगर आप प्रमाण दे सकें कि आप ऐसा नहीं समझती तो मुझे खुशी है, यदि समुच ऐसा नहीं है तो उस एक परिवार के लिए राजमहल में ठहराने की व्यवस्था करने की बात मुझसे क्यों पूछी? आपकी भावना थी कि इससे मुझे सन्तोष मिलेगा।"
"तब अप्पाजी के उपनयन के बाद उन्हें राज-परिवार के ही साथ ठहराया गया था इसलिए पूछा था, अन्यथा कुछ नहीं।"
"उस वक्त की बात अलग है, तब हमारे साथ दूसरे कोई अतिथि नहीं थे। राज-परिवार भेदभाव नहीं रखता। प्रधान पदों पर रहनेवालों को भी राज-परिवार के ही नीति-नियमों का पालन करना चाहिए। राजघराने की रीति एवं परम्परा की रक्षा मुख्य अधिकारियों के द्वारा होनी चाहिए।"
"इसके विरुद्ध कोई बात हमसे हुई?"
"नहीं, नहीं हुई है। लेकिन असह्य भावनाओं के कारण अथवा किसी तरह के स्वार्थ की वजह से ऐसा हुआ भी हो सकता है।"
"अब तो ऐसी ही व्यवस्था हुई है।"
"किन-किनको कहाँ-कहाँ ठहराने की व्यवस्था की है, मुझे जानकारी है। आपके औचित्य ज्ञान का भी मुझे परिचय है।"
पट्टमहादेवी शान्तला :: 317