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"आप काव्य-रचना करने बैठे और किसी नायिका के दुःख का चित्रण करना पड़े तो आप खुद रोने बैठेंगे? ऐसे बैठने से काव्य-रचना हो सकेगी? यहाँ भी वही बात है। किसी के बारे में कोई बात आपसे सम्बद्ध कोई कहता है तो उसपर आपको चिन्ता क्यों हो? आपके मन में ऐसी भावना क्यों हो? आपके मन में बुराई न हो तभी निर्लिप्त रहना साध्य होता।" ___ "मुझमें कोई ऐसी बात ही नहीं है। परन्तु उनसे विदा लेकर आना कर्तव्य था, उसका पालन न हो सका, यही चिन्ता मन को सालती रही।"
___ "किन्तु जिस परिस्थिति में आपको आना पड़ा उसले आप परिनिन हैं, इसके लिए चिन्तित नहीं होना चाहिए। महादण्डनायक यहाँ आनेवाले ही हैं, तब चाहे आप सीधी बात कर लें। जब तक वे स्वयं यह बात नहीं उठाएँ तब तक आप खुद यह बात न उठाएँ, यह सही ही नहीं है, यह मेरी सलाह भी है।"
"ठीक है। अब तत्काल मन का भार कम हुआ, बोझ उतरा। उनके आने पर क्या होगा, यह अभी से क्यों सोचूं? आज्ञा हो तो चलूँ। मैंने आपके साथ बात करने की जो स्वतन्त्रता ली उसके लिए क्षमा मांगता हूँ।"
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं । आप सब राज-परिवार के हैं। आप लोगों को अपनी इच्छा खुले दिल से स्पष्ट कहनी चाहिए, यही अच्छा है।"
कवि नागचन्द्र नमस्कार करके चला गया। युवरानो एचलदेवी अपने पलंग की तरफ चलीं। और पैर पसारकर लेट गयीं।
चापध्या की इस दुर्बुद्धि पर युवरानी एचलदेवी के मन में घृणा की भावना उत्पन्न हो गयी। मरियाने दण्डनायक के आने का समाचार तो मालूम था परन्तु उसका कारण वह नहीं जानती थी। चामव्वा ने कौन-सा पासा खेलने के लिए उनके हाथ में देकर भेजा है, यह विदित नहीं। प्रतीक्षा करके देखना होगा।
हाँ, हाँ, प्रतीक्षा करके देखने का विचार किया, यह तो ठीक ही है। इस विचार के पीछे एक-एक करके सभी बातें याद आयीं। इस सबका मूल कारण राज-परिवार की समधिन बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा है । हेग्गड़ती और उसकी लड़की ये शनि के चले जाने की खबर सुनते ही उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। यही उसके आनन्द का कारण था ! कैसी नीचता! न्यौते का नाटक रचा, कुछ वस्त्र आदि देकर खूब खेल दिखाया। फिर विदाई का नाटकीय आयोजन किया। शायद इनके प्रस्थान के तुरन्त बाद वह विवाह की बात उठाना चाह रही थी। उसे पता दिये बिना, हम लोगों का प्रस्थान होने से वह मौका चूक गया । इसपर उसे गुस्सा भी आया होगा। और वह गुस्सा किसीन-किसी पर उतारना चाहती है। ऐसी हालत में, दण्डनायक शायद इसी सम्बन्ध में बात करने आ रहे होंगे। इसलिए पहले ही से अपने प्रभु से विचार-विनिमय कर लेना अच्छा है।
201 :: पट्टमहादेखो शान्तला