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बातों की सुविधाएँ जुटा दी हैं।"
"बहुत अच्छा।"
इतना कहकर चुप हो जाने पर कवि ने समझ लिया कि अब जाना है। वह भी उठ खड़ा हुआ परन्तु गया नहीं।
"और कुछ कहना है कविजी?" युवरानी एचलदेवी ने पूछा। "हाँ, एक निजी बात है।" "कहिए।"
"एक पखवारे से सोच रहा था कि कहूँ या नहीं। आज इस निर्णय पर पहुँचा कि कह दूँ। मेरे दिन में लोई गलतः हो शो मा करें।"
"इतनो पूर्व-पीठिका है तो बात कुछ गम्भीर ही होगी।" एचलदेवी ने कहा।
वह फिर बैठा। बोला, "डाकरस दण्डनायकजी ने यहाँ आने के बाद एक बार मुझे बुला भेजा था। जाकर दर्शन कर आया। उस समय उन्होंने जो बात कही उसे सुनकर मेरा दिल बहुत दुख रहा है । जो बात मुझे सही नहीं लगती ठसे बिना छिपाये स्पष्ट कह देना मेरा स्वभाव है, उससे चाहे जो हो जाए। जिस पत्तल में खाये उसी में छेद करना मेरा स्वभाव नहीं। यह बात दण्डनायकजी के यहाँ से उठी हैं। यह मैंने बात करने के ढंग से समझ लिया, यद्यपि उन्होंने बात इस ढंग से की कि उससे मेरा दिल न दुखे। उनके कहने के ढंग से लगा कि मुझे प्रभु का आश्रय और उनका प्रेम मिना, इसलिए मैं उनकी परवाह नहीं करता, यह भावना उनके मन में उत्पन्न हो गयी है। यह सुनने के बाद मैं इस बात की जड़ की खोज में लगा हूँ । वेलापुरी की यात्रा का समाचार पहले से जानते हुए भी वहाँ से निकलते समय उनसे कहकर नहीं आया, मैं सोचता हूँ यही कारण रहा होगा। सन्निधान जानती हैं राज-परिवार के यहाँ पधारते समय पिछले दिन अचानक रात को ही चिण्णम दण्डनायक के साथ यहाँ सकुटुम्ब आना पड़ा। फिर भी चिण्णम दण्डनायकजी से इस बारे में मैंने निवेदन किया था। उन्होंने कहा, यह स्वामीजी की आज्ञा है, तुरन्त तैयार हो जाओ प्रस्थान के लिए। जिनजिनको बताना होगा उन सबको राजमहल से खबर भेज दी जाएगी। इसके लिए आपको चिन्तित होने की जरूरत नहीं। मैं इधर चला आया। मेरे मन पर जो भार लद गया था, उसे मैंने सन्निधान से निवेदन किया है । आज्ञा हो तो एक बार दोरसमुद्र जाकर दण्डनायकजी से सीधा मिलकर क्षमा याचना कर आऊँ।" कवि नागचन्द्र ने कहा। उसका मन वास्तव में उद्वेग से भरा था।
"इस समाचार पर रंग सम्भवत: स्त्रियों की ओर से चढ़ा है। आपको आतंकित होने की जरूरत नहीं। सिर्फ इसीलिए आपको वहाँ तक जाने की जरूरत नहीं। मैं स्वामी से बात करूंगी। आप निश्चिन्त रहें।"
"स्त्रियाँ कहें या पुरुष, ऐसी बात से तो मन दुखेगा ही।"
अहमहादेवी शान्तला :: ५।