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ही बनी रहे । भेदभाव और स्थान-मार की भावना इसे छुए तक नहीं।" कहकर उन्हें बाहुपाश में लेकर एचलदेवी सिर सूंघकर उस पर हाथ फेरती रही।
कन्नड़ राज-भगिनियों के इस संगम का दृश्य कर्नाटक की भाषी भव्यता का प्रतीक बनकर शोभा दे रहा था।
मरियाने दण्डनायक ने कवि नागचन्द्र को बुलाकर उनसे बड़ी आत्मीयता के साथ बात की। इस अवसर पर डाकरस दण्डनायक भी साथ रहे, यह अच्छा हुआ, क्योंकि कवि नागचन्द्र ने युवरानीजी से जो बातें कही थीं, उनका मूल आधार डाकरस ही थे। दण्डनायक अपने को बचाने के लिए इन बातों से इनकार कर देते तो नागचन्द्र की स्थिति बड़ी विचित्र बन जाती। कविजी की स्थिति सन्दिग्धावस्था में पड़ी थी। डाकरस भी अपनी सौतेली माँ की बातों के कारण दुःखी था। इसलिए उसने कहा, "राजघराने के अपार विश्वास के पात्र हम उस विश्वास की रक्षा करने में यदि अब भी तत्पर हो जाएँ तो हम कृतार्थ होंगे, इसके विपरीत व्यवहार-ज्ञान से शून्य और अपना बड़प्पन दिखानेवाली औरतों की बातों पर नाचने लगे तो हम जिसका नमक खा रहे हैं उसी को धोखा देंगे।" निडर होकर बिना किसी संकोच के अपने पिता के समक्ष खरी-खोटी सुनाकर डाकरस ने यह भी कह दिया कि उनके व्यवहार को देखने पर उनकी दूसरी पत्नी प्रधान गंगराज की बहन है, यह विश्वास ही नहीं होता।
प्रधानजी के मना करने पर भी पत्नी की बात मानकर विवाह-सम्बन्ध विचार के लिए बह आया था। यहाँ की हालत का अनुभव होने के बाद दण्डनायक ने तात्कालिक रूप से यह निर्णय भी कर लिया था कि आइन्दा इस तरह पत्नी की बातों में आकर कोई कार्य नहीं करेगा। उसके पुत्र डाकरस पर युवराज का विश्वास है, इतना सन्तोष उसे अवश्य था। कुल मिलाकर यही कहना पड़ेगा कि अबकी बार दण्डनायक मरियाने का इस यात्रा पर निकलने का मुहूर्त अच्छा नहीं था।
शिक्षण की सारी व्यवस्था देखकर दण्डनायक ने व्यूह-रचना के सम्बन्ध में आवश्यक सलाह दी, "योद्धा तो मृत्यु का सामना करते ही हैं लेकिन युद्ध कला से अपरिचित नागरिकों को शत्रुओं के अचानक हमले से सुरक्षित रखने के लिए हर गाँव और कस्बे में आरक्षण व्यवस्था के लिए मजबूत घेरा और जगह-जगह बुर्ज बनाना आवश्यक है। धेरै के चारों ओर पेड़-पौधे लगाना आवश्यक है ताकि शत्रुओं को इस बात का पता भी न लगे कि इसके अन्दर भी लोग आरक्षित हैं।" ऐसी ही एक-दो नहीं अनेक बातें समझायीं और अनेक उपयुक्त सलाह दी उन्होंने।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 307