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उसकी बगल में रायण खड़ा था। उसने धीरे से फुसफुसाकर कहा, "रे बूतुंग, वे कौन हैं, जानते हो? वे चालुक्य महारानी हैं, सनिधान कहो, माँ-वों नहीं" ।
"ऐ, छोड़ो भी, हमें वह सब भालूम नहीं। प्रेम से भी कहने से जो सन्ताप और सुख मिलता है वह कष्ट उठाकर सन्निधान कहने पर नहीं मिल सकेगा। चाहे वे कुछ भी समझ लें, हम तो माँ ही कहेंगे। अगर गलत हो तो क्षमा करना होगा माँ।"
"तुम्हें जैसा आसान लगे वैसा ही पुकारो, बूतुग। परन्तु एक बात सुनो, वह पुरानी घटना भूल जाओ। वह अब मन में नहीं रहनी चाहिए। आगे से अपनी जीभ को कोड़ा मत बोला करो, समझे ?"
"हाँ, समझा, माँ।" "तुमने शादी कर ली?"
"मुझे यह बन्धन ठीक नहीं लगता। ऐसे ही किसी जकड़-बन्द के बिना रहकर मालिक की सेवा करता हुआ जीवन खतम कर दूंगा।"
"गालब्बे और लेंक यह सोच रहे हैं कि दासब्बे के साथ तुम्हारी शादी कर दें।"
"हाँ, हाँ, यह बूतुग के लिए एक दिल्लगी की चीज बन गया है। बेवकूफ समझकर सब हंसी उड़ाते हैं। बबूल के पेड़ जैसा मेरा रंग, अतुल के फूल जैसी पीली वह दासब्ये, ऐसी कोमल और सुन्दर । उसे मुझ-जैसे के साथ शादी करने देगा कोई?"
"तुम हां कहो तो तुम्हारी शादी कराकर ही मैं कल्याण जाऊँगी।" बूतुग सिर झुकाये खड़ा रहा।
दिल्लगी की बात सचमुच मंगलबान-घोष के साथ सम्पन्न हो गयी। उस नयी जोड़ी को आशीष देकर, बलिपुर छोड़ने की अनिच्छा होते हुए भी, अपने अज्ञातवास के समय किसी-न-किसी कारण से जिन-जिनसे सम्पर्क हुआ था उन सबका वस्त्र आदि से सत्कार कर विदा हुई। "महारानी माँ कर्ण जैसी सन्तति की माँ बनकर चालुक्य वंश को शोभित करें।" बलिपुर के सभी लोगों ने ऐसी प्रार्थना की। बलिपुर की बाहरी सीमा तक जाकर हेग्गड़े-हेगड़ती, शान्तला, रायण, ग्वालिन त्यारप्पा, बूंतुण, दासब्बे आदि ने मंगलवाद्य-घोष के साथ विदाई दी। बड़ी रानीजी की विदाई में सारे-का-सारा बलिपुर शामिल हो गया था। अश्व-चालित रथ थोड़ी ही देर में आँखों से ओझल हो गया।
बूतुग और दासब्बे ने अपने हाथ में बँधा कंकण देखा और देखो वह लाल-लाल धूल जो धनुर्धारी सेना के चलने से उठ रही थी। हम कहाँ, चालुक्य सम्राज्ञी कहाँ? कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली? इस विवाह की प्रेरक-शक्ति वे कैसे बन गयीं? पहले यदि किसी ने यह सोचा होता तो वह हास्यास्पद बनता।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 309