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है, उनसे भी मैं यह निवेदन कर रहा हूँ कि पट्टाभिषिक्त होने के पश्चात् वे भी मेरी इस विनती को पूर्ण करके महाकवि पम्प के सदाशय को कार्यान्वित करें। मुझसे विद्यादान पानेवाले भावी महाराज के मन में यह सद्भाव यदि मैं उत्पन्न न करूँ तो मेरे गुरु बनने का क्या प्रयोजन? ज्ञानी में, विद्वान में किस तरह की भावना होनी चाहिए, धनवान् का कैसा स्वभाव होना चाहिए, ये बातें महाकवि रन ने बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त की हैं। जो श्रीयुत् होता है, उसमें अनुदारता होती है। जो वाक्श्री-युत् होता है, उसमें असूया रहती है। ये दोनों अच्छे नहीं । वाक्क्री-युत् ज्ञानी को असूयारहित होना चाहिए। श्री-युत जो होता है उसे उदार होना चाहिए जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है, हमें हाथ भर देना चाहिए, खुशी से देना चाहिए, दयापूर्ण होकर देना पाहिए। यह मेरा पुराकृत पुण्य का फल है कि मुझे इन जैसे राजकुमारों का गुरु बनने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ श्री और वाक्नी दोनों की संगति है। उदारता और द्वेषहीनता की साधना में ये राजकुमार सहायक बनेंगे। इसी विश्वास और आशा को लेकर मैं अध्यापन कर रहा हूँ। ये राजकुमार असूया की भावना से परे हैं। इसलिए उन्होंने सामान्य हेम्गड़े की पुत्री को भी सहाध्यायिनी के रूप में स्वीकार किया। उनको यही निर्मत्सरता स्थायी होकर भविष्य में उनके सुखी जीवन का सम्बल बने, यह मेरी हार्दिक अभिलाषा है। इससे अधिक मैं क्या कह सकता हूँ। महाकवि पम्प एक सत्कवि हैं, इसलिए उन्होंने स्याग और ज्ञान के उत्तमोत्तम चित्र अपने काव्य के द्वारा प्रस्तुत किये हैं। उस महाकाव्य का सार ग्रहण करने वाले स्त्री-विद्याभ्यास के हिमायतो होंगे। सन्निधान को भी चाहिए कि चालुक्य साम्राज्य में स्त्री-विधाभ्यास की व्यवस्था की, चालुक्य चक्रवर्ती को उसकी आवश्यकता समझाकर इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए मार्ग प्रशस्त करें।"
कवि नागचन्द्र ने एक विचार से दूसरे विचार की कड़ी मिलाकर बेरोकटोक क्या-क्या कह दिया, बात कहाँ से आरम्भ हुई और कहाँ पहुँच गयी। महारानी जी अभी कुछ और भी सुनना चाहती थीं जो उन्होंने स्वयं एक प्रस्ताव के रूप में सुनाया, "जब चक्रवर्ती यहाँ आएँगे तब अपने इन विचारों को उनसे सीधा निवेदन करने का आपको अवसर जुटा दूंगी। यदि वे आपके विचारों को स्वीकार कर इस कार्य का उत्तरदायित्व लेने को आपसे कहें तो आप स्वीकार कर लेंगे न?"
"महारानीजी, इससे मैं वचन-भ्रष्ट हो जाऊँगा।" "आपने किसे क्या वचन दिया है?"
"द्रोण ने भीष्म को जैसा वचन दिया था वैसा ही वचन मैंने महाराज को दिया है, जब तक इन राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण न होगी तब तक मैं अन्यत्र नहीं जाऊँगा।"
___ "अपने वचन की पूर्ति करके शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होना भी तो आप ही के हाथ में है न?"
पट्टमहादेवी शान्तला :: 259