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होती है। तो भी उसकी इच्छा हैं कि स्त्रियों को भी इस शास्त्र में पारंगत होना चाहिए।" नागचन्द्र ने महारानीजी को बैठा रखने का उपाय किया।
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'इतनी सद्भावना कन्नड़ के कवियों में है और इस सद्भावना के होते हुए भी कोई नाम लेने लायक कवयित्री हुई है? मेरे सुनने में तो नाम आया नहीं।" चन्दलदेवी ने बताया ।
पढ़ाई आगे जारी रही। शान्तला में एक नयी स्फूर्ति आ गयी थी । बिट्टिदेव में श्रद्धाभाव स्पष्ट रूप से चमक उठा था । बल्लाल भी ऐसा लग रहा था जैसे वह बदल गया है ।
नागचन्द्र ने पूछा, "अम्माजी, बताओ तो, तुमने अपने गुरु से कभी छन्दोम्बुधि का नाम सुना है ?""
शान्तला ने उत्तर दिया, "गुरुजी ने छन्दोम्बुधि के चार अधिकार पढ़ा दिये हैं, दो अधिकार शेष हैं। "
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'ऐसा है ? इस छोटी उम्र में इतना समझना आसान हुआ ?"
"मेरे गुरुजी भी जब तक पूर्ण रूप से समझ न लूँ तब तक बड़ी सावधानी से समझाकर बार-बार व्याख्या करते हैं।"
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'प्रासों के बारे में तुमने क्या समझा है ?"
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'हर एक चरण का दूसरा अक्षर एक ही होना चाहिए। प्रासों के छह प्रकार हैं। नागर्म का सूत्र है, 'हरि करि वृषभ तुरंग शरभं अजुगल मैनिप्प पासवक्कुं तरुणि । निजदोषं बिन्दुगष्ठिरदोत्तुं व्यंजनं विसगं वकुं ।' अर्थात् छह प्रकार के प्रास हैं कन्नड़ में, सिंह प्रास, गज प्रास, वृषभ प्रास, अज प्रास, शरभ प्रास, हय प्रास । ये काव्य के लिए अलंकार - प्राय हैं। इस सूत्र के प्रथमार्ध में इन प्रासों के नाम और उत्तरार्द्ध में उनके लक्षण बताये गये हैं। हर चरण का दूसरा अक्षर एक होना चाहिए जो प्रासाक्षर कहलाता है । प्रासाक्षर के पीछे हस्व स्वर हो तो वह सिंह प्रास है, दीर्घ स्वर हो तो गज प्रास, अनुस्वार हो तो वृषभ प्रास, विसर्ग हो तो अज प्रास, व्यंजन अर्थात् प्रास्साक्षर अन्य अक्षर से संयुक्त हो तो शरभ प्राप्स और सजातीय अक्षर से संयुक्त हो तो हय प्रास। इन प्रासों के न होने से काव्य शोभायमान नहीं होता, यह भी कहा है। " शान्तला ने कहा !
"तो क्या अधिकारों को कण्ठस्थ कर लिया है तुमने ?" नागचन्द्र ने पूछा । "नहीं, न । कुछ को तो कण्ठस्थ करना ही चाहिए।" गुरुजी ने कहा है।
"ठीक, अभी जो तुमने सुनाया उसी का भाव मेरे पास के भोजपत्र ग्रन्थ इस प्रकार लिखा है, सुनो, पढ़ता हूँ, निजदिं बंदोडे सिंगं । गज दीर्घ बिन्दु वृषभवेंजन शरभं । अजनु विसर्ग हयनं बुजमुखि दडदक्क रंगष्ठितु पद् प्रासं । "
"एक ही कवि द्वारा वही विषय दो भिन्न-भिन्न रीतियों से कैसे लिखा गया,
पट्टमहादेवी शान्तला : 263