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घृणा से उसका सिर झुक गया। मन-ही-मन कहने लगी, इसने भी उसकी मदद की थो, शत्रु के गुप्तचर की मदद, मैंने कौन-सा पाप किया था कि ऐसे देशद्रोही की पत्नी बनना पड़ा। नियमानुसार त्यारप्पा से प्रयाणवचन लिया गया, तब पुलिस के एक सिपाही ने कांगज निकालकर सरपंच के हाथ में दिया। हरिहरनायक ने पढ़ा और दूसरे पंचों को पढ़ाया, फिर पूछा, "यह पत्र किसका है?"
"इसने दिया था मुझे।' अभियुक्त की ओर निर्देश करता हुआ त्यारप्पा बोला। "किसलिए दिया था?" "पुलिगेरे में मल्लिमय्या को देने के लिए। उसे देने को मैं गया था।" "तुम्हें मालूम था कि इसमें क्या है?" "बन्दी बनने के बाद यहाँ आने पर पता लगा कि इसमें क्या है।" "इसे दे आने के लिए कहते समय तुमसे और कुछ भी कहा गया था क्या?"
"कल्याण से जेवर जो आने थे, वे अभी नहीं पहुंचे। दोरसमुद्र जाने का मौका चूक जाएगा। इस दिन की काफबूत हो जाना। कभी काम समाप्त किये बिना मैं जानेवाला नहीं हूँ। मेरा स्वभाव ही ऐसा जिद्दी है। इसलिए यह पत्र मल्लिमय्या को दे दें तो वे आगे की व्यवस्था करेंगे। मैं खुद ही जा सकता था। परन्तु कल्याण से कोई आ जाएँ तो उन्हें तकलीफ होगी। मैं स्नेहवश चला गया। पुलिगेरे में मल्लिमय्या से भेंट हुई, उसकी अपनी सोने-चांदी की दुकान में ही। इसकी कही सब बातें कहीं। उसने कहा, "यहाँ नहीं, गाँव के बाहर धात्री वन के मन्दिर में बात करेंगे। होरेजवाहरात की बात है। किसी को मालूम होने पर रास्ते में लूट-खसोट का डर रहता है।'' हम दोनों धात्री बन गये। वहाँ का बहुत सुन्दर पोखर है। चिलचिलाती दोपहरी थी। वहाँ हाथ-मुँह धोकर सीढ़ी पर इमली की छाया में जा बैठे। मैंने पत्र उसके हाथ में दिया। उसने उसे पढ़ा, बहुत अच्छा, त्यारप्पाजी, आपसे बड़ा उपकार हुआ। और वह उठ खड़ा हुआ। उसे अचानक उठता देखकर मैं भी उठने को हुआ तो उसने पीछे से मुझे ढकेल दिया। मैं पोखरे में मुँह के बल जा गिरा। फिर कुछ स्मरण नहीं कि क्या हुआ। बेहोशी दूर हुई तो मैंने अपने को एक गाड़ी में पाया जिसके चारों ओर चार सिपाही पहरा दे रहे थे।" यह सब सुनकर मल्लि के मुख-मण्डल पर जो भाव उमड़ रहे थे उनकी ओर किसी का भी ध्यान गये बिना न रह सका। वह कहता गया।
"मैं मरा नहीं क्योंकि मल्लि का सुहाग अमर था। मेरे साथ जो थे उनसे पूछा, 'हम जा कहाँ रहे हैं ?' उन्होंने कहा, 'बोलो मत, चुप रहो।' उनकी तलवार-ढालें देखकर मैंने फिर कुछ नहीं पूछा 1 यहाँ आने पर मैंने उसे पढ़ लिया। तब मुझे सारी बात मालूम पड़ गयी। मुझे पहले ही यह बात मालूम हुई होती तो मैं यह काम कभी स्वीकार नहीं करता। मुझसे देशद्रोह का काम कराने के अलावा मुझे ही खतम करने की सोची थी इस द्रोही ने।" कहता हुआ वह क्रोध से दांत पीसने लगा।
पट्टमहादेवी शान्तला :: 237